यदि हम ओबीसी को शासन सत्ता में देखना चाहते हैं तो जाति के बाहर निकलकर सोचना पड़ेगा। ओबीसी एकता बनाने में दिक्कत इसलिए आ रही है कि हमें जाति गौरव का बोध इस कदर करवा दिया गया है कि हमें लगता है हमारी ही जाति सर्वश्रेष्ठ है, ईमानदार है और उसी के नेतृत्व में हमारा कल्याण हो सकता है। दूसरे जाति का नेतृत्व हमारा ध्यान नही देता अपने कुल में ही रेवड़ियां बांटता है आदि-आदि हमारी सोच रहती है। इसमें से कुछ सही भी हो सकती है और कुछ पूर्वाग्रह भी हो सकता है। इसी दुर्बलता के चलते ओबीसी एका में समय लग रहा है। अपनी जाति का उद्धार करना हर किसी को सरल लगता है। अब तो हर जाति के लोगों ने अपना-अपना राजा-महराजा भी ढूंढ़ लिया है और सभी इसी अहम में हैं कि वे राजशाही खानदान से हैं चाहे वो लोधी, पासी, राजभर, गड़ेरिया, यादव, पटेल, मौर्या ही क्यों न हों? सबसे बड़ी बात एक जाति का दूसरी जाति विश्वास ही नही कर रही है, इसके पिछे कारण यह भी हो सकता है कि जिस जाति को प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला वह अन्य जातियों को तवज्जों न दिया हो, तो दूसरी जातियों को चाहिए कि वे भी जब प्रतिनिधित्व निभाना चाहती है तो क्या वह अन्य जातियों को भरोसा दिलाने का काम कर रही हैं, या वे सभी जातियों के मान स्वाभिमान की रक्षा करते हुए हर जगह सबकी समानुपातिक भागीदारी का ख्याल रख रही है। दूसरों को शिक्षा देना तो आसान है मगर उस शिक्षा का हम कितना अमल कर रहे हैं सवाल इसका भी है। यह सभी जानते हैं कि जाति गौरव करके हम सिर्फ अलग-थलग ही रह सकते हैं, बिना ओबीसी गौरव बोध के हम शासन सत्ता हासिल करने में लाखों कोसों मील दूर हैं। कभी जोड़-तोड़ करके ओबीसी की सरकारें बनी तो उसका भी हश्र हमलोगों ने देखा है। यह स्थायी क्यों नही होती इसे स्थायी करने के जो उपाय है हमें उसपर काम करना होगा, दूसरा कोई उपाय भी नही है।