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क्या चीन के सहयोग के बिना संभव नहीं है अखंड भारत?

जब यूरोपियन यूनियन की तर्ज पर दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन बनाने का विषय आता है, तब बहुत से लोग यह आशंका व्यक्त करते हैं कि दक्षिण एशियाई यूनियन बनना तभी संभव है जब इसमें चीन सहयोग करे। यहां तक कि चीन इस यूनियन में शामिल हो। इसके पीछे तर्क यह होता है कि यदि चीन यूनियन में शामिल नहीं होता, तो यूनियन की सरकार और यूनियन की सेना के सामने चीन जैसी एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी। परिणाम यह होगा कि चीन और इस यूनियन के बीच हथियारों की होड़ आगे भी बनी रहेगी। इसका परिणाम यह होगा कि रक्षा बजट कम करने की नीयत से बनाया गया दक्षिण एशिया यूनियन रक्षा बजट को कम करने में कामयाब नहीं हो पाएगा। यदि रक्षा बजट कम नहीं किया जा सका, तो रक्षा बजट कम करने के जितने भी फायदे हैं, उन सभी फायदों से दक्षिण एशियाई यूनियन के सभी देश और इन देशों के नागरिक वंचित रहेंगे। दक्षिण एशियाई यूनियन बनाने में चीन सहयोग नहीं करेगा -जिन लोगों की ऐसी मान्यता है, उनको यह आशंका रहती है कि चीन इस कार्य में सहयोग नहीं करेगा तो बाधक बनेगा। इसके पीछे आकलन यह होता है कि दक्षिण एशियाई देश अगर एकजुट हो जाएंगे तो, उनकी सैनिक शक्ति चीन की सैनिक शक्ति के बराबर हो जाएगी। चीन जैसा देश ऐसा कदापि नहीं चाहेगा, कि उसके पड़ोस के देश में उसकी सेना जैसी ताकतवर कोई और सेना की उपस्थिति बन जाए। इसलिए चीन कभी भी दक्षिण एशियाई देशों को एकजुट नहीं होने देगा। यानी चीन अखंड भारत के सपने को कभी पूरा नहीं होने देगा। इसके विपरीत यह भी कहा जाता है, कि दक्षिण एशियाई यूनियन बनाने में चीन तभी सहयोग कर सकता है जब इस यूनियन में चीन को भी शामिल किया जाए। यानी यदि चीन भी यूनियन में शामिल होता है, तभी वह सहयोग करेगा। किंतु यदि चीन यूनियन में शामिल होता है, तब कुछ लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि चीन भारत की संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा बन जाएगा। यानी चीन भारत को हजम कर लेगा। इसलिए कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन जरूर बनना चाहिए किंतु उसमें चीन को शामिल नहीं किया जाना चाहिए। किंतु ऐसा होता है तो रक्षा बजट की होड़ को कैसे रोका जाएगा? यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा। यदि यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया तो दक्षिण एशियाई यूनियन और अखंड भारत का सपना हकीकत में नहीं बदल पाएगा। उक्त दो परस्पर विरोधी बातों का विश्लेषण किया जाए तो यही पता चलता है यह दोनों ही आशंकाएं मात्र अटकल हैं, इनके पीछे कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। पहले इसी प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या यूनियन में चीन के शामिल होने से भारत की संप्रभुता समाप्त हो जाएगी? नहीं,ऐसा नहीं हो सकता। जिन तर्कों से यह निष्कर्ष निकलता है कि चीन के शामिल होने से वह भारत के संप्रभुता को नष्ट कर देगा। उन्हीं तर्कों से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि यूनियन में भारत के शामिल होने से भारत अपने अन्य छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता को नष्ट कर देगा। जिन तर्कों के आधार पर भारत अपने छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता को नष्ट नहीं कर सकेगा उन्हीं तर्कों के आधार पर चीन भारत की संप्रभुता को नष्ट नहीं कर सकता। क्योंकि यूनियन का संविधान, यूनियन के कानून निर्माण में सभी प्रदेशों और सभी देशों को शामिल करता है। इसलिए न तो भारत अपने छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता नष्ट कर सकेगा और न ही चीन भारत की संप्रभुता को नष्ट कर सकेगा। इस विषय में विस्तार से अन्यत्र विश्लेषण किया जा चुका है। यदि यूनियन में चीन शामिल नहीं होता, तब भी भारत या दक्षिण एशिया के अन्य देशों को चीन से डरने की जरूरत नहीं है। क्योंकि दक्षिण एशियाई यूनियन बनने के बाद इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन कायम हो जाएगा। चीन दक्षिण एशियाई यूनियन की सैनिक शक्ति को देखकर अपने साम्राज्यवादी स्वभाव को वापस ले लेगा। चीन इसलिए भी अपने साम्राज्यवादी स्वभाव को बदलेगा क्योंकि दक्षिण एशियाई यूनियन के बाजार का आकार बहुत बड़ा होगा। यदि दक्षिण एशियाई यूनियन से चीन के संबंध अच्छे होंगे तो इस बाजार से चीन को बहुत बड़ा लाभ होने वाला है। दक्षिण एशिया यूनियन से अपने रिश्ते खराब करके चीन इतने बड़े लाभ से वंचित होना पसंद नहीं करेगा। दक्षिण एशिया यूनियन से चीन अपने संबंध इसलिए भी खराब नहीं करना चाहेगा, क्योंकि यदि चीन से दक्षिण एशियाई यूनियन के संबंध खराब होते हैं तो दक्षिण एशियाई यूनियन की नज़दीकियां अमेरिका के साथ बढ़ने लगेंगी। एशियाई क्षेत्र में अमेरिका के साथ किसी दक्षिण एशियाई यूनियन जैसी महाशक्ति का नजदीक आना चीन के लिए सामरिक दृष्टिकोण से बड़ा खतरा साबित हो सकता है। चीन अपने लिए इतने बड़े खतरे को निमंत्रित करना कदापि पसंद नहीं करेगा। चीन में बेरोजगारी तेजी सेे बढ़ रही है। इसलिए चीन भी चाहता है कि वह अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा सुलभ कराये। किंतु रक्षा बजट बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा में वह इसमें कामयाब नहीं हो पा रहा है। दक्षिण एशियाई यूनियन में शामिल होने से या दक्षिण एशियाई यूनियन के साथ सहयोगी बनने से उसको अपना रक्षा बजट बढ़ाने की जरूरत समाप्त हो जाएगी। इसलिए यूनियन चीन के लिए हर दृष्टिकोण से फायदेमंद है। पहले चरण में यदि चीन यूनियन में शामिल नहीं हुआ तो वह दूसरे चरण में शामिल हो सकता है। यदि दूसरे चरण में वह यूनियन में शामिल नहीं हुआ तो वह पूर्वी एशियाई देशों और रूस के साथ मिलकर यूनियन बनाने के लिए विवश होगा, क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में चीन अलग-थलग नहीं रह सकता। जिस प्रकार चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ उसी प्रकार नई विश्व व्यवस्था में शामिल होने से चीन अपने आपको अलग नही रख पाएगा। विश्व मानवतावाद और विश्व के सभी लोगों को आर्थिक न्याय सुलभ कराना चीन की राजनीतिक विचारधारा में पहले से शामिल है। वैश्वीकरण की परिस्थितियां अब वह अवसर प्रदान करने जा रही है। यूरोपियन यूनियन या दक्षिण एशिया यूनियन की घटनाएं विश्व समाज को उसी तरफ ले जा रही है जिधर ले जाने की वकालत का व्यवहार उसने पहले ही किया था। विश्व के समस्त लोगों के साथ न्याय हो और अहिंसक समाज रचना और राज्य रचना हो ऐसी शिक्षा महात्मा बुद्ध की रही है। जिसमें चीन का बहुसंख्यक जनमानस शिक्षित है। इसलिए चीन का समाज और चीन की सरकार दक्षिण एशियाई यूनियन का समर्थन करेगी और स्वयं भी एक न्याय पूर्ण “विश्व व्यवस्था” बनाने की दिशा में सहयोगी बनेगी। हां यह हो सकता है कि चीन पहले चरण में यूनियन में शामिल होने के बाद अपने बॉर्डर ना खोलें और दूसरे चरण में खोले। चीन का दक्षिण एशियाई यूनियन के देशों के साथ बॉर्डर खुल जाने से चीन की औद्योगिक संस्कृति दक्षिण एशिया के सभी देशों में फैल सकेगी। इसका परिणाम यह होगा कि दक्षिण एशिया के सभी देशों में तेजी से औद्योगीकरण होगा। चीन के शामिल होने का यह फायदा सभी देशों को मिलेगा। दक्षिण एशियाई देशों के साथ जनजीवन साझा हो जाने के बाद चीन के लोग लोकतंत्र के फायदे व नुकसान को अपनी आंखों से देख पाएंगे। इससे चीन के लोग लोकतंत्र के बारे में अपना दृष्टिकोण साफ कर सकेंगे। इसी प्रकार एक कम्युनिस्ट राज्य तंत्र और कम्युनिस्ट समाज के लाभ और नुकसान को दक्षिण एशिया के सभी देश देख पाएंगे और उन्हें साम्यवाद के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर करने का मौका मिलेगा। चीन अपने मैनलैंड में साम्यवादी शासन चलाता है किंतु उन देशों में जहां उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण है वहां साम्यवादी शासन रखने के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए शासन व्यवस्था अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग की हो सकती है । यह बात चीन स्वीकार कर चुका है। दक्षिण एशियाई यूनियन बनने के बाद चीन की यह मान्यता उसे प्रेरित करेगी, कि वह दक्षिण एशियाई देशों में साम्यवादी राज्य तंत्र न थोपे। चीन का समाज दक्षिण एशिया के साथ घुलना-मिलना इसलिए भी पसंद करेगा क्योंकि चीन की और दक्षिण एशियाई देशों की सभ्यता और संस्कृति और इतिहास का साझापन रहा है। महात्मा बुद्ध भारत में पैदा हुए और उनके धर्मावलंबी श्रीलंका, बर्मा,भारत और नेपाल जैसे देशों में चारों तरफ फैले हुए हैं। अपने सारे इतिहास के साथ एक साधारण तंत्र बनते हुए देना चीन के लिए आनंददायक होगा। इसलिए चीन यूनियन की दिशा में सहयोगी रुक ही अख्तियार करेगा, विरोधी रुख अख्तियार नहीं करेगा।

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