विश्व परिवर्तन मिशन
अखंड भारत के बारे में पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर
इन सभी देशों के गांवों का शहरों जैसा विकास अखंड भारत के गठन का मुख्य उद्देश्य है
जिनको अखंड भारत बनाना है, उनके लिए व्यावहारिक है। सुरंग में और समुद्र के अंदर रेल की पटरी बनाना छोटे इंजीनियरों के लिए के लिए व्यावहारिक नहीं होता।
नहीं। कदापि नहीं। अखंड भारत 21वीं सदी की जरूरत है। हो सकता है कि इन देशों के 2 या 4% अमीरों को इसकी जरूरत न हो। किंतु बाकी सभी लोगों को अखंड भारत की जरूरत है। किसी की जरूरत को काल्पनिक कहना जरूरत को पूरा करने के रास्ते में रुकावट पैदा करने की साजिश है।
दोनों का एक ही अर्थ है। अंग्रेजी भाषा की सभ्यता संस्कृति वाले लोग जिस चीज को दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन समझते हैं, उसी चीज को हिंदी भाषा के लोग अखंड भारत समझते हैं।
एबी मानसिकता के लोग इसमें बाधक हैं। एबी मानसिकता के लोग अपने परिवार को तो संपन्न बनाना चाहते हैं। लेकिन बाकी सारे समाज को आर्थिक तंगी में छटपटाते हुए देख कर आनंदित होते हैं। इस मानसिकता के लोगों की मान्यता यह होती है की गरीबी तो हमेश ही रहेगी. बस मेरा अपना परिवार गरीब नहीं रहना चाहिए.
जो हिंदू मुसलमानों के साथ नहीं रह सकतेे, उन्हें अखंड भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी। जो मुसलमान हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते, वह अपने अपने देश में पहले की तरह बने रहेंगे। इस तरह के असहिष्णु मुसलमानों को भी अखंड भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी।
सभी देशों में मध्यम और निम्न आर्थिक वर्ग के लोग बहुमत में हैं। सभी देशों मैं मौजूद यह बहुसंख्यक समाज अखंड भारत का समर्थन करने वाली पार्टी या पार्टी गठबंधन को वोट देकर सत्ता सौंप देगा। जब सभी देशों में एक ही सोच के लोग सत्ता संभाल लेंगे तो अखंड भारत बनाने के लिए आपस में संधि कर लेंगे।
इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में कोई काम करने के लिए लंबा वक्त नहीं चाहिए। सूचना क्रांति के इस युग में जनमानस को शिक्षित करने का काम बहुत कम समय में हो जाता है। बस इस तरह का प्रशिक्षण चलाने के लिए पैसा चाहिए.
जो मीडिया के जो संस्थान अखंड भारत का विरोध करेंगे, या चुप्पी साधकर रखेंगे; सभी देशों के मध्य वर्ग और निम्न आर्थिक वर्ग के लोग ऐसे मीडिया संस्थानों का बहिष्कार कर देंगे। मीडिया संस्थान को चौपट होता देख सभी देशों के निजी मीडिया संस्थान अखंड भारत का समर्थन करने के लिए विवश हो जाएंगे। अखंड भारत बनाने से मध्य वर्ग और निम्न आर्थिक वर्ग के लोगों के परिवारों में जो पैसा पहुचने का विश्वास हो जायेगा तो सभी देशों के अधिकांश परिवार छोटी छोटी रकम प्रति माह चंदे में देने लगेंगे.
इस विषय में भविष्यवाणी नहीं करने से अखंड भारत कम समय में बन पाएगा। भविष्यवाणी कर देने से शत्रु शक्तियां एकजुट हो जाती हैं।
अखंड भारत यूरोपियन यूनियन से मिलता जुलता होगा किंतु कई मामले में अलग होगा। अखंड भारत का स्वरूप सभी देशों के दक्षिण एशियाई अंतरिम नागरिकों द्वारा बनने वाली संविधान सभा निश्चित करेगी।
देशों की सीमाएं बनी रहेंगे। अखंड भारत की अपनी भी सीमा रेखा बन जाएगी। इस प्रकार सभी देशों को दोहरी रक्षा प्रणाली का लाभ आधे से भी कम रक्षा बजट में मिल जाएगा। सभी देशों की संप्रभुता बढ़ जाएगी।
यूरोपियन यूनियन की तरह दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन बनने से सभी देशों में विकास बढ़ेगा। सभी देशों के मध्य वर्ग और गरीबों के घरों में पैसा पहुंचेगा। सभ्यता और संस्कृति की उन्नति होगी।
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें दक्षिण एशियाई देशों की जनसंख्या में मौजूद विभिन्न धर्मों के मानने वालों की संख्या के बारे में जानना चाहिए। भारत, पाकिस्तान, नेपाल,भूटान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, श्रीलंका, मालदीव और वर्मा को यानी कुल 10 देशों को दक्षिण एशिया में माना जाए तो ईसाइयों की जनसंख्या इस क्षेत्र में मात्र 2% से कुछ अधिक है। जनसंख्या के मामले में सबसे ज्यादा ईसाई भारत में रहते हैं। जिनकी जनसंख्या 3 करोड़ से अधिक यानी लगभग 2.5% है। प्रतिशत के अनुसार देखा जाए तो श्रीलंका और वर्मा में ईसाइयों का प्रतिशत सबसे अधिक लगभग 7% है। इन सभी देशों में जनसंख्या के अनुपात से देखा जाए तो मुख्य रूप से हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध धर्म को मानने वाली जनसंख्या ही है।
विकिपीडिया के सन 2010 के आंकड़ों के अनुसार इन सभी 10 देशों में मुस्लिम आबादी फुल 48,28,65,400 है। जबकि हिंदू आबादी 1,01,84,89,890 है। सबसे ज्यादा मुसलमान पाकिस्तान में कुल 20,41,94,370 रहते हैं आबादी के अनुपात से दूसरे क्रम में भारत आता है जहां मुसलमानों की आबादी 18.9 करोड़ है। भारत की जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 14.4 है और हिंदुओं का प्रतिशत 79.5 है। बौद्ध धर्मावलंबियों की जनसंख्या भारत में नहीं के बराबर यानी 97,96,880 हैं। भारत की जनसंख्या में बौद्ध धर्मावलंबियों का प्रतिशत 0.8 है। अगर दक्षिण एशियाई वतन में चीन को भी शामिल किया जाए तो आंकड़े बदल जाते हैं। किंतु ज्यादा परिवर्तन नहीं होता। इसका मूल कारण यह है कि चीन में कुल आबादी 1,34,13,40,000 है,किंतु इस आबादी में 52.2% आबादी किसी धर्म को नहीं मानती। कथित रूप से 52% आबादी सभ्य हो चुकी है। आम तौर पर चीन को एक बुद्धिस्ट कंट्री के रूप में जाना जाता है लेकिन बौद्ध धर्मावलंबियों की जनसंख्या यहां मात्र 18.2% है। चीन में एक बड़ा समाज लोकल धर्म मानता है जिनका प्रतिशत 21.9 है। यानी चीन में जनजातियों की जनसंख्या का प्रतिशत काफी बड़ा है जो अपने स्थानीय धार्मिक विश्वासों से अभी भी जुड़े हुए हैं। चीन में हिंदुओं की आबादी मात्र 20000 यानी नगण्य है। हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की जनसंख्या अधिक यानी 1.8 प्रतिशत है। चीन में 2,41, 44,120 मुसलमान रहते हैं। यह आंकड़े विकिपीडिया के हैं जो सन 2010 में यथा विद्यमान जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित हैं। यह शोध सन 2010 में प्यू रिसर्च सेंटर ने किया था।
अगर संपूर्ण विश्व में विभिन्न धर्मावलंबियों की जनसंख्या पर एक नजर डाली जाए, तो सबसे ज्यादा लोग ईसाई धर्म को मानते हैं । विश्व की कुल जनसंख्या 6,89,58,62,000 में ईसाइयों का प्रतिशत 31.5 है जबकि मुसलमानों का प्रतिशत 23.11 है तथा हिंदू धर्मावलंबियों का प्रतिशत 14.98 है। विश्व में कुल 7% बौद्ध धर्म मानने वाले लोग रहते हैं। जनसंख्या वृद्धि दर के आंकड़ों पर यदि दृष्टिपात करें तो विश्व में इस्लाम को मानने वालों की जनसंख्या वृद्धि सबसे अधिक 1.84% है, और ईसाई धर्म मानने वालों की जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम 1.38% है। दूसरे क्रम पर सिख समुदाय की जनसंख्या 1.62% की दर से बढ़ रही है और जैन समाज की जनसंख्या 1.57% की दर से बढ़ रही है हिंदू धर्मावलंबियों की जनसंख्या विश्व में 1.52 प्रतिशतकी दर से बढ़ रही है। यद्यपि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि विश्व में अन्य धर्मावलंबियों के अनुपात में सबसे अधिक है फिर भी आने वाले 1000 बर्षों में जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या हिंदुओं की होगी और दूसरे क्रम में ईसाई होंगे। मुसलमानों की जनसंख्या तीसरे क्रम में होगी। इसमें अंतर केवल इतना आएगा कि जहां आज विश्व में सबसे ज्यादा ईसाई हैं वहां हजार साल बाद सबसे ज्यादा हिंदू होंगे। किंतु शिक्षा के और समृद्धि के बढ़ने के साथ-साथ जनसंख्या में धर्मावलंबियों के अनुपात का जो प्रतिशत है, वह कुछ और ही भविष्यवाणी करता है।
यानी जिस प्रकार शिक्षा और समृद्धि बढ़ने के कारण ईसाई समाज की जनसंख्या वृद्धि घटने लगी उसी प्रकार शिक्षा और समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ हिंदुओं और मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर भी भविष्य में घटेगी और किसी भी धर्म को नहीं मानने वालों की जनसंख्या वृद्धि लगातार बढ़ेगी। इस निष्कर्ष के कारण यह संभावना ही सबसे प्रबल है कि भविष्य में सबसे ज्यादा जनसंख्या उन लोगों की होगी जो किसी धर्म में विश्वास नहीं करते होंगे, विज्ञान का ज्ञान ही उनके विश्वास का आधार होगा। विज्ञान के ज्ञान पर विश्वास करने वालों को अगर वैज्ञानिक धर्मावलंबी कहा जाए तो इस धर्म के सबसे अधिक अनुयाई वर्तमान में चीन,रूस और यूरोप में है। भविष्य में इनकी जनसंख्या बढ़ेगी और विश्व की जनसंख्या में इनका अनुपात भी बढ़ेगा। हिंदू और मुसलमानों का बड़ा प्रतिशत भविष्य में वैज्ञानिक धर्म मानने वाला बन जाएगा। इसलिए अलग-अलग धर्मो के अनुयायियों की जनसंख्या वृद्धि के वर्तमान आंकड़े भविष्य में नहीं चलेंगे। यहां उल्लेखनीय है की सबसे ज्यादा जनसंख्या वृद्धि दर उन्हीं समुदायों की होती है जिनकी आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत बदतर होती है।
भारत में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में अधिक रही है,किंतु यह दर हमेशा एक समान नहीं रही। सन् 1991 से लेकर सन् 2001 के बीच के दशक में हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 19.9,% रही जबकि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर 29.5% रही। किंतु बाद के दशक में सन 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर घट कर 24.6% हो गई। भारत में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर किसी साजिश के तहत है,यह निष्कर्ष भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जनसंख्या वृद्धि दर से तुलना करने पर गलत साबित होता है। भारत में मुस्लिम जनसंख्या दर और अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग लगभग समान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है की जनसंख्या वृद्धि के लिए आर्थिक स्थिति जिम्मेदार होती है। क्योंकि भारत में मुसलमानों के आर्थिक स्थिति और अनुसूचित जाति जनजाति समाज की आर्थिक स्थिति लगभग समान है, इसलिए इन दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर भी लगभग समान है। भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 1961 में 30.1 मिलीयन थी जो 2011 में बढ़कर 104.2 मिलियन हो गई यानी अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या वृद्धि दर 6.9 से बढ़कर 8.6 हो गई। अनुसूचित जातियों की संख्या 1961 में 64.4 मिलियन थी जो सन 2011 में बढ़कर 201.3 मिलियन हो गई। अनुसूचित जातियों और जनजातियों का जनसंख्या वृद्धि दर लगभग समान है। हिंदुस्तान के विभाजन से पहले हिंदू जनसंख्या 73% थी और मुस्लिम जनसंख्या 24% थी। भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश की जनसंख्या को जोड़कर देखें तो यह स्थिति आज 70 साल बाद भी लगभग जस की तस बनी हुई है।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत सरकार ने बताया था कि भारत में मुस्लिम जनसंख्या 17.22 करोड़ है। यानी कुल जनसंख्या में मुस्लिम अनुपात 14.22% है, जबकि हिंदू अनुपात 80% है। इस वृद्धि दर को ध्यान में रखते हुए अगर हम 50 साल आगे यानी सन 1961 में जनसंख्या के अनुपात की गणना करें तो मुस्लिम जनसंख्या 29.24 करोड़ हो जाएगी और हिंदू जनसंख्या 140.25 करोड़ हो जाएगी यानी मुस्लिम अनुपात, नीचे गिर कर 16.19% हो जाएगा और हिंदू अनुपात ऊपर उठकर 81.06% हो जाएगा। जनसंख्या के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि अगर दक्षिण एशियाई यूनियन का गठन किया जाता है,तो मुसलमानों की जनसंख्या 50 करोड़ से कम रहेगी। जबकि हिंदुओं की जनसंख्या 100 करोड़ से अधिक रहेगी। इसमें चीन को शामिल कर लिया जाता है तो अधिक फर्क नहीं पड़ता। फर्क इतना पड़ता है कि बौद्ध जनसंख्या जो इस क्षेत्र में कुल 2 करोड़ 86 लाख 49 हजार 420 है, अब इसमें चीन में रहने वाले 24 करोड़ 41 लाख 23 हजार 880 लोग और जुड़ जाएंगे। यानी चीन के शामिल हो जाने से बौद्ध धर्म मानने वालों की जनसंख्या लगभग 27 करोड हो जाएगी। फिर भी मुसलमानों के लगभग 50 करोड़ और हिंदुओं के लगभग 103 करोड़ की तुलना में यह जनसंख्या काफी कम है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है की यह बात केवल अफवाह है कि दक्षिण एशियाई वतन बनने से या फिर एशियाई वतन बनने से इस क्षेत्र में मुसलमान बहुमत में हो जाएंगे। वास्तव में अभी भी इस क्षेत्र में हिंदू बहुमत में हैं और अखंड भारत बनने के बाद भी हिंदू बहुमत में बने रहेंगे। एशियन यूनियन बनने के बाद भी यह स्थिति बरकरार रहेगी। टिप्पणी या सुझाव दें
दक्षिण एशियाई देशों की एक यूनियन बन जाती है तो इस क्षेत्र में मौजूद सबसे बड़ा देश यानी भारत अन्य सभी देशों को कब्जा कर लेगा, यह मात्र कोरी कल्पना है। इसका कारण यह है कि दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन बनने के बाद यूनियन की नागरिकता सभी व्यक्तियों को देने का प्रस्ताव नहीं है। यह नागरिकता केवल उन्हीं लोगों को प्राप्त होगी जो लोग यूनियन की शर्तों को मानेंगे, चाहे वह किसी भी देश के हों या किसी भी धर्म के मानने वाले हों। भारत में जनसंख्या अधिक है, यह बात सत्य है और यह भी सत्य है कि यूनियन की नागरिकता में सबसे बड़ी संख्या भारत से ही होगी। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि अपनी जनसंख्या की ताकत के बल पर भारत की सरकार अन्य देशों की सरकारों को कब्जा कर लेगी। आखिर अगर एक देश दूसरे देश को कब्जा ही करेगा,तो फिर यूनियन की सरकार क्या करेगी? क्या वह यह सब देखते रहेगी? यूनियन की संसद में सभी देशों की राज्यसभाओं की तरह ही एक सभा होगी, जिसमें सभी देशों के प्रतिनिधि होंगे, वो किसी भी देश के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए अपनी मुहर क्यों लगाएंगे? आखिर यूनियन तो वही करेगी जो देशों की सरकारें चाहेंगी। देशों की सरकारें अपने आप को कब्जा कराने के लिए कानून क्यों पास करायेंगी ? दक्षिण एशियाई यूनियन के संविधान में साम्राज्यवाद के लिए कोई जगह नहीं होगी। क्योंकि इसकी संसद त्रिस्तरीय होगी। पहला स्तर सभी देशों में मौजूद प्रदेशों के प्रतिनिधियों का होगा। दूसरा स्तर सभी देशों के प्रतिनिधियों का होगा। और तीसरा स्तर दक्षिण एशियाई नागरिकों के प्रतिनिधियों का होगा। जिस प्रकार आज भारत में राज्यसभा और लोकसभा हैं। उसी प्रकार दक्षिण एशिया यूनियन में दो की जगह 3 सभाएं होंगी। जब तक तीनों सभाएं यानी अखंड भारत के तीनों घटक किसी विधेयक को पारित नहीं करते तब तक वह विधेयक कानून नहीं बनेगा। जब तक कोई विधेयक कानून नहीं बनता, तब तक उस प्रस्ताव पर पुलिस और सेना अमल नहीं कर सकती। यानी स्पष्ट है की अखंड भारत की सरकार क्या करेगी? इसका दो तिहाई हिस्सा देशों के ऊपर और देशों में मौजूद प्रदेशों के ऊपर निर्भर करेगा। कोई भी देश और कोई भी प्रदेश क्यों चाहेगा कि उसके ऊपर कोई दूसरा देश कब्जा कर ले या कोई दूसरा प्रदेश कब्जा कर ले? अतः भारत के नागरिकों और भारत में रहने वाले दक्षिण एशियाई नागरिकों के बीच अंतर समझना होगा। भारत के नागरिकों से खतरा हो सकता है, किंतु भारत में रहने वाले दक्षिण एशियाई नागरिकों से खतरा नहीं हो सकता। भारतीय सेना से भी डरने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जो लोग भारतीय सेना में शामिल हैं, कुछ वर्षों में ही वह अवकाश प्राप्त हो जाएंगे। नई भर्ती में इस बात का ध्यान रखा जाएगा, कि सेना में केवल दक्षिण एशियाई नागरिकता प्राप्त व्यक्ति ही भर्ती किए जाएं। चाहे वह किसी भी देश के क्यों ना हो। इसलिए अखंड भारत की सेना में भी जनसंख्या अधिक होने के नाते भारत देश की धरती पर रहने वाले लोगों की संख्या अधिक होगी। किंतु इनको भारतीय मानकर चलना ठीक नहीं होगा। यह सभी हिंदुस्तानी होंगे। यह सभी अखंड भारत से प्रेम करने वाले होंगे। यह सभी वे लोग होंगे जो दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सभी देशों को अपना मानते होंगे। सेना में भर्ती के समय जो योग्यता और शर्तें निर्धारित की जाएंगी उसमें इस बात का ध्यान रखा जाएगा की संकीर्ण राष्ट्रवादी लोग यूनियन की सेना में भर्ती ना होने पाए। वृहत्तर राष्ट्रवादी लोग ही यूनियन की सेना में भर्ती हों। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में जो छोटे देश हैं उनको तो भारत का एहसानमंद होना चाहिए कि उनकी सुरक्षा के लिए सबसे अधिक संख्या में जो सैनिक तैनात हैं, वह भारत देश की धरती पर रहते हैं। भारत देश बड़ा है, भारत का क्षेत्रफल बड़ा है, भारत देश की जनसंख्या का आकार बड़ा है। इसलिए भारत देश की जिम्मेदारियां भी अखंड भारत में सबसे बड़ी है। अन्य देशों की सुरक्षा करने का सबसे बड़ा बोझ भारत पर गी होगा। इसलिए भारत को यूनियन में शामिल होने से बाकी सभी देश के लोगों को सुरक्षित महसूस करना चाहिए, न कि डरना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दक्षिण एशियाई नागरिकता केवल वही व्यक्ति पसंद करेगा जिसकी सोच साम्राज्यवादी नहीं है। जो मानवतावादी है, जो सभी देशों के साथ प्यार करता है, जो सभी देशों के नागरिकों को अपना मानता है, आखिर ऐसे लोगों से डरने की क्या जरूरत है? ऐसे लोगों की भावना मां बाप के भावना जैसी होती है। जैसे अपने मां-बाप अपने बच्चों से प्यार करते हैं, उसी तरह से दक्षिण एशियाई नागरिकता लेने वाले लोग दक्षिण एशिया के क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिकों के मां-बाप की भूमिका में होंगे। बच्चों को अपने मां-बाप से डरने की क्या जरूरत है? जो मां-बाप की भावना नहीं रखते वह दक्षिण एशिया यूनियन बनने के बाद भी दक्षिण एशियाई नागरिकता नहीं लेंगे। यदि उन्होंने नागरिकता ले लिया लेकिन किसी दूसरे देश को कब्जा करने की मानसिकता नहीं छोड़ा तो वह ऐसा कोई ग़लत आचरण जीवन में जरूर करेंगे जिसके कारण उनके नागरिकता समाप्त हो जाएगी। परिणाम स्वरूप ऐसे लोग वापस अपने देश के नागरिक बन जाएंगे। टिप्पणी या सुझाव दें
जब यूरोपियन यूनियन की तर्ज पर दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन बनाने का विषय आता है, तब बहुत से लोग यह आशंका व्यक्त करते हैं कि दक्षिण एशियाई यूनियन बनना तभी संभव है जब इसमें चीन सहयोग करे। यहां तक कि चीन इस यूनियन में शामिल हो। इसके पीछे तर्क यह होता है कि यदि चीन यूनियन में शामिल नहीं होता, तो यूनियन की सरकार और यूनियन की सेना के सामने चीन जैसी एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी। परिणाम यह होगा कि चीन और इस यूनियन के बीच हथियारों की होड़ आगे भी बनी रहेगी। इसका परिणाम यह होगा कि रक्षा बजट कम करने की नीयत से बनाया गया दक्षिण एशिया यूनियन रक्षा बजट को कम करने में कामयाब नहीं हो पाएगा। यदि रक्षा बजट कम नहीं किया जा सका, तो रक्षा बजट कम करने के जितने भी फायदे हैं, उन सभी फायदों से दक्षिण एशियाई यूनियन के सभी देश और इन देशों के नागरिक वंचित रहेंगे। दक्षिण एशियाई यूनियन बनाने में चीन सहयोग नहीं करेगा -जिन लोगों की ऐसी मान्यता है, उनको यह आशंका रहती है कि चीन इस कार्य में सहयोग नहीं करेगा तो बाधक बनेगा। इसके पीछे आकलन यह होता है कि दक्षिण एशियाई देश अगर एकजुट हो जाएंगे तो, उनकी सैनिक शक्ति चीन की सैनिक शक्ति के बराबर हो जाएगी। चीन जैसा देश ऐसा कदापि नहीं चाहेगा, कि उसके पड़ोस के देश में उसकी सेना जैसी ताकतवर कोई और सेना की उपस्थिति बन जाए। इसलिए चीन कभी भी दक्षिण एशियाई देशों को एकजुट नहीं होने देगा। यानी चीन अखंड भारत के सपने को कभी पूरा नहीं होने देगा। इसके विपरीत यह भी कहा जाता है, कि दक्षिण एशियाई यूनियन बनाने में चीन तभी सहयोग कर सकता है जब इस यूनियन में चीन को भी शामिल किया जाए। यानी यदि चीन भी यूनियन में शामिल होता है, तभी वह सहयोग करेगा। किंतु यदि चीन यूनियन में शामिल होता है, तब कुछ लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि चीन भारत की संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा बन जाएगा। यानी चीन भारत को हजम कर लेगा। इसलिए कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन जरूर बनना चाहिए किंतु उसमें चीन को शामिल नहीं किया जाना चाहिए। किंतु ऐसा होता है तो रक्षा बजट की होड़ को कैसे रोका जाएगा? यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा। यदि यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया तो दक्षिण एशियाई यूनियन और अखंड भारत का सपना हकीकत में नहीं बदल पाएगा। उक्त दो परस्पर विरोधी बातों का विश्लेषण किया जाए तो यही पता चलता है यह दोनों ही आशंकाएं मात्र अटकल हैं, इनके पीछे कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। पहले इसी प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या यूनियन में चीन के शामिल होने से भारत की संप्रभुता समाप्त हो जाएगी? नहीं,ऐसा नहीं हो सकता। जिन तर्कों से यह निष्कर्ष निकलता है कि चीन के शामिल होने से वह भारत के संप्रभुता को नष्ट कर देगा। उन्हीं तर्कों से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि यूनियन में भारत के शामिल होने से भारत अपने अन्य छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता को नष्ट कर देगा। जिन तर्कों के आधार पर भारत अपने छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता को नष्ट नहीं कर सकेगा उन्हीं तर्कों के आधार पर चीन भारत की संप्रभुता को नष्ट नहीं कर सकता। क्योंकि यूनियन का संविधान, यूनियन के कानून निर्माण में सभी प्रदेशों और सभी देशों को शामिल करता है। इसलिए न तो भारत अपने छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की संप्रभुता नष्ट कर सकेगा और न ही चीन भारत की संप्रभुता को नष्ट कर सकेगा। इस विषय में विस्तार से अन्यत्र विश्लेषण किया जा चुका है। यदि यूनियन में चीन शामिल नहीं होता, तब भी भारत या दक्षिण एशिया के अन्य देशों को चीन से डरने की जरूरत नहीं है। क्योंकि दक्षिण एशियाई यूनियन बनने के बाद इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन कायम हो जाएगा। चीन दक्षिण एशियाई यूनियन की सैनिक शक्ति को देखकर अपने साम्राज्यवादी स्वभाव को वापस ले लेगा। चीन इसलिए भी अपने साम्राज्यवादी स्वभाव को बदलेगा क्योंकि दक्षिण एशियाई यूनियन के बाजार का आकार बहुत बड़ा होगा। यदि दक्षिण एशियाई यूनियन से चीन के संबंध अच्छे होंगे तो इस बाजार से चीन को बहुत बड़ा लाभ होने वाला है। दक्षिण एशिया यूनियन से अपने रिश्ते खराब करके चीन इतने बड़े लाभ से वंचित होना पसंद नहीं करेगा। दक्षिण एशिया यूनियन से चीन अपने संबंध इसलिए भी खराब नहीं करना चाहेगा, क्योंकि यदि चीन से दक्षिण एशियाई यूनियन के संबंध खराब होते हैं तो दक्षिण एशियाई यूनियन की नज़दीकियां अमेरिका के साथ बढ़ने लगेंगी। एशियाई क्षेत्र में अमेरिका के साथ किसी दक्षिण एशियाई यूनियन जैसी महाशक्ति का नजदीक आना चीन के लिए सामरिक दृष्टिकोण से बड़ा खतरा साबित हो सकता है। चीन अपने लिए इतने बड़े खतरे को निमंत्रित करना कदापि पसंद नहीं करेगा। चीन में बेरोजगारी तेजी सेे बढ़ रही है। इसलिए चीन भी चाहता है कि वह अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा सुलभ कराये। किंतु रक्षा बजट बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा में वह इसमें कामयाब नहीं हो पा रहा है। दक्षिण एशियाई यूनियन में शामिल होने से या दक्षिण एशियाई यूनियन के साथ सहयोगी बनने से उसको अपना रक्षा बजट बढ़ाने की जरूरत समाप्त हो जाएगी। इसलिए यूनियन चीन के लिए हर दृष्टिकोण से फायदेमंद है। पहले चरण में यदि चीन यूनियन में शामिल नहीं हुआ तो वह दूसरे चरण में शामिल हो सकता है। यदि दूसरे चरण में वह यूनियन में शामिल नहीं हुआ तो वह पूर्वी एशियाई देशों और रूस के साथ मिलकर यूनियन बनाने के लिए विवश होगा, क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में चीन अलग-थलग नहीं रह सकता। जिस प्रकार चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ उसी प्रकार नई विश्व व्यवस्था में शामिल होने से चीन अपने आपको अलग नही रख पाएगा। विश्व मानवतावाद और विश्व के सभी लोगों को आर्थिक न्याय सुलभ कराना चीन की राजनीतिक विचारधारा में पहले से शामिल है। वैश्वीकरण की परिस्थितियां अब वह अवसर प्रदान करने जा रही है। यूरोपियन यूनियन या दक्षिण एशिया यूनियन की घटनाएं विश्व समाज को उसी तरफ ले जा रही है जिधर ले जाने की वकालत का व्यवहार उसने पहले ही किया था। विश्व के समस्त लोगों के साथ न्याय हो और अहिंसक समाज रचना और राज्य रचना हो ऐसी शिक्षा महात्मा बुद्ध की रही है। जिसमें चीन का बहुसंख्यक जनमानस शिक्षित है। इसलिए चीन का समाज और चीन की सरकार दक्षिण एशियाई यूनियन का समर्थन करेगी और स्वयं भी एक न्याय पूर्ण "विश्व व्यवस्था" बनाने की दिशा में सहयोगी बनेगी। हां यह हो सकता है कि चीन पहले चरण में यूनियन में शामिल होने के बाद अपने बॉर्डर ना खोलें और दूसरे चरण में खोले। चीन का दक्षिण एशियाई यूनियन के देशों के साथ बॉर्डर खुल जाने से चीन की औद्योगिक संस्कृति दक्षिण एशिया के सभी देशों में फैल सकेगी। इसका परिणाम यह होगा कि दक्षिण एशिया के सभी देशों में तेजी से औद्योगीकरण होगा। चीन के शामिल होने का यह फायदा सभी देशों को मिलेगा। दक्षिण एशियाई देशों के साथ जनजीवन साझा हो जाने के बाद चीन के लोग लोकतंत्र के फायदे व नुकसान को अपनी आंखों से देख पाएंगे। इससे चीन के लोग लोकतंत्र के बारे में अपना दृष्टिकोण साफ कर सकेंगे। इसी प्रकार एक कम्युनिस्ट राज्य तंत्र और कम्युनिस्ट समाज के लाभ और नुकसान को दक्षिण एशिया के सभी देश देख पाएंगे और उन्हें साम्यवाद के बारे में अपनी गलतफहमियां दूर करने का मौका मिलेगा। चीन अपने मैनलैंड में साम्यवादी शासन चलाता है किंतु उन देशों में जहां उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण है वहां साम्यवादी शासन रखने के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए शासन व्यवस्था अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग की हो सकती है । यह बात चीन स्वीकार कर चुका है। दक्षिण एशियाई यूनियन बनने के बाद चीन की यह मान्यता उसे प्रेरित करेगी, कि वह दक्षिण एशियाई देशों में साम्यवादी राज्य तंत्र न थोपे। चीन का समाज दक्षिण एशिया के साथ घुलना-मिलना इसलिए भी पसंद करेगा क्योंकि चीन की और दक्षिण एशियाई देशों की सभ्यता और संस्कृति और इतिहास का साझापन रहा है। महात्मा बुद्ध भारत में पैदा हुए और उनके धर्मावलंबी श्रीलंका, बर्मा,भारत और नेपाल जैसे देशों में चारों तरफ फैले हुए हैं। अपने सारे इतिहास के साथ एक साधारण तंत्र बनते हुए देना चीन के लिए आनंददायक होगा। इसलिए चीन यूनियन की दिशा में सहयोगी रुक ही अख्तियार करेगा, विरोधी रुख अख्तियार नहीं करेगा। टिप्पणी या सुझाव दें
बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। बाजार की दुनिया में यह एक सर्व स्वीकार्य तथ्य है। इसी मान्यता के आधार पर 1994 में पूरी दुनिया की कंपनियों को पूरी दुनिया में अपना माल बेचने की आजादी दी गई। इसी आजादी को उदारीकरण और उपभोक्ता अधिकार के रूप में प्रचारित किया गया। यह कार्य एक अंतरराष्ट्रीय संधि द्वारा संपादित किया गया ।जिसका नाम गैट संधि था। इसी संधि के कारण पूरी दुनिया के व्यापारियों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन तैयार हो गया और अब काम भी कर रहा है। जिसको विश्व व्यापार संगठन के नाम से जाना जाता है। जब विश्व व्यापार संगठन पर संधि हो रही थी। उस समय यह आवाज उठाई गई थी कि अमेरिका,चीन और यूरोप की बड़ी-बड़ी ताकतवर कंपनियां भारत की कंपनियों को निकल जाएंगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ। भारत की कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की कला आ गई। अपना अस्तित्व बचाने के लिए इस प्रतिस्पर्धा में भारत की कंपनियों को उतरना पड़ा। और भारत की कंपनियां इसमें कामयाब भी हो गई। इसलिए यूनियन बनने से कुछ नया नहीं होने वाला है। जो होना था विश्व व्यापार संगठन के लिए संपन्न हुई अंतरराष्ट्रीय संधि से हो चुका है। यह भारत में ही नहीं हुआ सभी देशों में हुआ है।
अखंड भारत बनने से भारत की कंपनियां पाकिस्तान, नेपाल, भूटान,बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों की कंपनियों के सीधे संपर्क में आ जाएंगी। इससे छोटे-छोटे देशों की कंपनियों को भारत की बड़ी कंपनियों से सीखने का मौका मिलेगा। छोटे-छोटे देशों की कंपनियां भी अब बड़ी कंपनी बन पाएंगी। कई देशों में मजदूरी का रेट बहुत सस्ता है, इसे देखते हुए भारत की बड़ी-बड़ी कंपनियां भारत से अपने उद्योग-धंधे बंद करके इन छोटे-छोटे देशों में अपने उद्योग-धंधे लगा देंगे। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा और स्थानीय विकास होगा। यानी भारत की बड़ी कंपनियां भारत के पड़ोसी देशों के लिए खतरा नहीं है,बल्कि एक सुनहरा अवसर हैं। भारत की कंपनी हो या किसी अन्य देश की कंपनी हो,उससे किसी दूसरे देश में धंधा-व्यापार करने के लिए जाने की इजाजत और पूरी आजादी तभी मिलेगी, जब वह यूनियन की सरकार में अपना पंजीकरण कराएं। यूनियन की सरकार में जितने भी कंपनियां पंजीकृत होगी वह किसी एक देश की कंपनी नहीं मानी जा सकती। यह सभी कंपनियां यूनियन के सभी देशों की साझी कंपनियां होगी। यानी भारत के पड़ोसी देशों को फ्री में बड़ी-बड़ी कंपनियों का स्वामित्व मिल जाएगा। और यह कंपनियां जो मुनाफा कमाएंगी और उस मुनाफे से जो टैक्स देंगी, वह टैक्स यूनियन के सभी देशों का साझा धन होगा। वह केवल भारत या किसी एक देश का धन नहीं माना जा सकता। टैक्स की यह राशि यूनियन की सरकार केवल भारत के विकास पर ही खर्च नहीं करेगी अपितु यूनियन में शामिल सभी देशों के विकास पर खर्च करेगी। इसलिए भारत के पड़ोसी देशों के लिए भारत एक कमाऊ भाई बन जाएगा। लेकिन ऐसा तभी हो पाएगा जब अखंड भारत का गठन हो। टिप्पणी या सुझाव दें
हिंदुओं का राज शब्द जब उच्चारित किया जाता है तो ऐसा लगता है कि हिंदुओं का राज का अर्थ भारत की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा का राज है। यह मात्र गलतफहमी है। भाजपा हिंदुओं की आत्मा की आवाज है,ऐसा केवल वही लोग समझते हैं जो हिंदुओं को और हिंदुत्व को नहीं समझते। भाजपा ज्यादा से ज्यादा हिंदुओं की ब्राह्मणवादी आत्मा की आवाज है। हिंदुओं की कुल जनसंख्या में ब्राह्मणों की जनसंख्या मात्र 5% है। बाकी 95% हिंदू समाज ब्राह्मणवादी संस्कारों से अलग है। वह सामाजिक और आर्थिक समानता में विश्वास करता है। वह वर्ण व्यवस्था का विरोधी है। वह ब्राह्मणवादी अंधविश्वासों का विरोधी है। वह मूर्ति पूजा में श्रद्धा नहीं रखता। वह अस्पृश्यता और समाज के सीढ़ीदार व्यवस्था को नहीं मानता। यानी 95% हिंदू समाज समाजवादी संस्कारों से लैस है। समाजवादी संस्कारों वाले व्यक्ति से और समाजवादी संस्कारों वाले समुदाय से किसी दूसरे समुदाय को कोई खतरा नहीं हो सकता। वह दूसरा समुदाय चाहे मुस्लिम समुदाय हो, बौद्ध समुदाय हो, जैन समुदाय हो, सिख समुदाय हो या फिर कोई अन्य समुदाय हो। समाजवादी संस्कार वाला व्यक्ति सभी को अपना मानता है।
ब्रह्मणवादी हिंदुओं का समाजवादी हिंदुओं के साथ गहरा टकराव है। ब्राह्मणवादी हिंदू 95% समाजवादी हिंदुओं को वामपंथी कहकर उनको गालियां देते हैं, अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। उनका बस चले तो इन 9% लोगों का अस्तित्व नष्ट कर दें। किंतु 95% लोगों को नष्ट करना इतना आसान नहीं है। इसलिए समाजवादी और वामपंथी हिंदू जीवित है और लगातार पल बढ़ रहे हैं। हिंदुओं से खतरा महसूस करने की बात बिल्कुल नई नहीं है। जब से भारतीय जनता पार्टी नाम की एक राजनीतिक पार्टी ने भारत में सत्ता की बागडोर संभाली है, तब से हिंदुओं की छवि पूरी दुनिया में खराब हुई है। लेकिन पूरी दुनिया को यह समझना चाहिए कि हिंदू समाज वैसा नहीं है,जैसा भारतीय जनता पार्टी ने दुनिया के सामने परोसा है। भारतीय जनता पार्टी वह पार्टी है जिसकी विचारधारा भारत के विभाजन के दौरान पैदा हुई थी और विभाजन से पहले की जो परिस्थितियां थी, भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक विचार उस जमीन में उगे हुए हैं।
अब लगभग 70- 80 साल बाद भारत की और विश्व की परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई है। राष्ट्रवाद की यूरोपियन परिभाषा बदल गई है। सामाजिक और आर्थिक विषमता समाज के लिए खतरा माने जाने लगे हैं। अस्पृश्यता को संवैधानिक तौर पर गलत करार दे दिया गया है। फासीवाद और नाजीवाद दुनिया में बदनाम हो चुके हैं। किंतु भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा जब पैदा हुई तब फासीवाद और नाजीवाद का झंडा पूरी दुनिया में बुलंद था हिटलर और मुसोलिनी पूरी दुनिया के सबसे ताकतवर नेता दिखाई पड़ रहे थे। किंतु बाद मैं उनका बहुत बुरा हश्र हुआ। लेकिन इन दोनों तानाशाहों ने अपने-अपने देश को बर्बाद कर दिया। इन के अपने ही देशों में अब दोनों तानाशाहों का नाम लेवा कोई नहीं बचा है। इनके अपने देश के लोग इतिहास के उस कालखंड को दो सपनों की तरह देखने लगे हैं। वही सपना भारतीय जनता पार्टी भारत के सभी लोगों को दिखाना चाहती है। किंतु हिटलर और मुसोलिनी इसलिए कामयाब हुए कि उनकी विचारधारा का नकारात्मक पक्ष दुनिया को मालूम नहीं था। किंतु आज नाजीवाद और फासीवाद के खतरे से पूरी दुनिया अच्छी तरह परिचित हो चुकी है। और सोशल मीडिया इन खतरों को धीरे-धीरे लोगों के सामने पहुंचा रही है जो हिटलर और मुसोलिनी के युग में संभव नहीं था।
ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी के लोग उक्त तथ्यों से अनजान है। भारतीय जनता पार्टी के लोग भी अपनी पार्टी को ब्रह्मणवादी चंगुल से मुक्त करके समाजवादी हिंदुओं के शरण में जाने के लिए छटपटा रहे हैं। यह घटना देर-सवेर जरूर घटेगी और स्वयं भारतीय जनता पार्टी अपने इतिहास से नफरत करेगी। अपने फासीवादी कालखंड को इतिहास से मिटाने की कोशिश खुद अपने हाथों करेगी। क्योंकि ऐसा करके ही वह सत्ता में बनी रह सकेगी और 95% वामपंथी और समाजवादी हिंदुओं का समर्थन हासिल कर पाएगी। भारतीय जनता पार्टी के लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि उसकी विचारधारा एक एक्सपायर दवा बन चुकी है और एक्सपायर दवा को बहुत देर तक बेचा नहीं जा सकता। जो कंपनी एक्सपायर दवा को रोगियों के बीच बेचेगी, उस कंपनी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। समाजवादी हिंदू समावेशी प्रकृति के हैं। यह दूसरों के साथ भाईचारा करने और दूसरों को अपना बना लेने की कला जानते हैं। इतिहास में वामपंथी हिंदुओं ने हिंदू समाज के आकार को बहुत बड़ा कर दिया है। पहले कृष्ण और राम के मानने वाले लोग आपस में दंगा-फसाद करते थे। किंतु राम और कृष्ण की वामपंथी व्याख्या करके समाजवादी हिंदुओं ने राम और कृष्ण के अनुयायियों में समझौता करा दिया और यह दोनों संप्रदाय इस तरह घुल मिल गए कि आज इनको अलग-अलग पहचानना मुश्किल है। आदिवासियों के देवता शंकर और ब्राह्मण वादियों के देवता विष्णु के बीच भी वामपंथी हिंदुओं ने इस तरह का मेलजोल करा दिया कि आज शैव संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय इतिहास के विषय बन चुके हैं। इन दोनों संप्रदायों को ढूंढ पाना, पहचान पाना और इन को अलग -अलग कर पाना अब संभव नहीं रहा।
वामपंथी हिंदू, जैन धर्म बौद्ध धर्म, और सिख धर्म को यहां तक की मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले आर्य समाज को अपना ही मानते हैं। "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ने"- वामपंथी हिंदू इस सिद्धांत में विश्वास करते हैं। इसलिए दूसरे विचारों के प्रति, यहां तक कि अपने से 180 डिग्री विपरीत विचारों के प्रति सहिष्णुता वामपंथी हिंदुओं की रग-रग में बसी हुई है। अहिंसा, भाईचारा, मानवतावाद, वसुधैव कुटुंबकम जैसे सिद्धांत और संस्कार समाजवादी हिंदू समाज की आत्मा है। जिस समाज के 95% लोग ऐसी विचारधारा में विश्वास करते हैं,उस समाज से खतरा महसूस करना अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। इसलिए समाजवादी हिंदुओं का भारत ही नहीं पूरी दुनिया के मुसलमानों के साथ हमेशा से दोस्ताना संबंध रहा और आज भी है। यह दोस्ताना संबंध भविष्य में भी रहेगा। क्योंकि 5% ब्राह्मणवादी हिंदू 95% समाजवादी हिंदुओं की सभ्यता और संस्कृति को नष्ट नहीं कर सकते। ब्रह्मणवादी हिंदू सदा सदा से हिंदुत्व की परिभाषा बदलते रहे हैं। कभी हिंदुत्व को संस्कृति कहते हैं तो कभी धर्म। कानून की भाषा में हिंदू संस्कृति नहीं है एक धर्म है। ठीक वैसा ही धर्म जैसे इस्लाम और ईसाई धर्म हैं।
सरकार के कागजातों में धर्म के कॉलम में हिंदू लिखने की 70 साल पुरानी परंपरा है। अगर हिंदू धर्म ना होता तो सरकारी कागजातों में धर्म के कालम में हिंदू लिखने की परंपरा क्यों होती और सरकार ने इस को कानूनी मान्यता क्यों दिया होता? किंतु हिंदुओं के ब्रह्मणवादी सिद्धांतकार अपने आप को ऊंचा साबित करने के लिए इस्लाम और ईसाइयों की बराबरी में अपने आप को खड़ा नहीं करना चाहते। इसीलिए वह हिंदू शब्द का अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग अर्थ बताते हैं। कभी हिंदू को धर्म बताते हैं, तो कभी हिंदू को संस्कृति बताते हैं। कभी हिंदुत्व को भौतिक विज्ञान का पर्यायवाची बता देते हैं,तो कभी हिंदुत्व को आस्थाओं की अभिव्यक्ति बताते हैं....।
कुल मिलाकर आशय यह है कि हिंदू शब्द का कोई एक स्थिर अर्थ नहीं है। यह उद्विकासीय है। भविष्य में हिंदूकुश पर्वत के पूर्व में रहने वाली समस्त जनसंख्या को हिंदू कह दिया जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। हिंदुकुश पर्वत के पूर्व में संपूर्ण दक्षिण एशिया है और संपूर्ण दक्षिण एशियाई देश हैं। इन देशों में रहने वाले सभी हिंदू, सभी मुसलमान, सभी जैन, सभी बौद्ध सभी शिक्ख, सभी इसाई और सभी जनजातियां हिंदू हैं। हिंदू का ऐसा अर्थ करना बहुत मुश्किल काम नहीं है। भविष्य में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व से मुकाबला करने की कोशिश में समाजवादी हिंदू ऐसा ही करेंगे। क्योंकि समाजवादी हिंदुओं के रग-रग में सबको अपना मानने का संस्कार रचा बसा है। ऐसा होता भी है, तो यह नहीं समझना चाहिए कि हिंदू समाज बाकी समाजों को हजम कर ले रहा है। ऐसा होता है तो हिंदू शब्द एक धार्मिक शब्द होने की बजाय एक भौगोलिक शब्द हो जाएगा। भारत,पाकिस्तान, व बांग्लादेश के साझे नक्शे को हिंदुस्तान कहने की परंपरा बहुत पहले से ही है। इसका यह मतलब नहीं है कि इस नक्शे में केवल हिंदू रहते थे, मुसलमान या अन्य धर्मों के मानने वाले नहीं रहते थे।
वास्तव में हिंदुस्तान के शब्द से ही यह अर्थ निकलता है कि यह किसी धर्म को संबोधित नहीं करता। अपितु यह भौगोलिक क्षेत्र को संबोधित करता है। इसलिए दक्षिण एशिया के पूरे परिक्षेत्र हो अखंड भारत कहने के बजाय दोबारा से हिंदुस्तान कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में केवल ब्राह्मणवादी रहेंगे और किसी को रहने का अधिकार नहीं है। हिंदू शब्द से जो डर पैदा हो गया है, यह मात्र हिंदूफोबिया है। न तो हिंदू शब्द इतना डरावना है, ना ही हिंदू समाज इतना डरावना है। ज्यादा से ज्यादा हिंदू समाज का 5% ब्राह्मणवादी हिस्सा डरावना हो सकता है, जो हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श मानता है और उनके ही संस्कारों को अपनाने का हिमायती है। 5% हिंदू जो दूसरे धर्मावलंबियों और दूसरे देशों के लिए खतरा हैं, तो ऐसा सभी धर्म और सभी देशों में है। इस्लाम में भी हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श मानने वाले लोग हैं। ईसाइयों में भी ऐसे लोग हैं।
इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो हिंदू समाज अन्य धार्मिक समाजों से बहुत अलग नहीं है। किंतु 95% समाजवादी और वामपंथी हिंदू समाज सभी धर्मों के मानने वालों को अपनाही मानता है। जो हिंदू मुसलमानों को अपने ही धर्म का व्यक्ति मानता हो, जो हिंदू ईसाइयों को अपने ही धर्म का व्यक्ति मानता हो, जो हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख समाज को अपने ही धर्म का व्यक्ति मानता हो उसी से खतरा कैसा? वह तो सच्चे अर्थों में धर्म समदर्शी व्यक्ति है। उसकी आंखों में जो तेज है,उस तेज से वह सभी धर्मों में एकता के तत्व देख पाता है। लेकिन आंखों का यह तेज जिन लोगों के आंखों में नहीं है, वह दूसरे धर्मों के लोगों को अपना कैसे माने? संतो की दृष्टि सब के पास कैसे आ सकती है? वसुधा को कुटुंब मानने वाले हिंदू वास्तव में वामपंथी हिंदू ही थे और उन्हीं के संस्कारों के कारण आज हिंदू समाज का अस्तित्व है।
अगर वसुधा को कुटुम्ब मानने वाले संस्कार हिंदुओं में ना होते, तो राम और कृष्ण की पूजा करने वाले लोग आज एकजुट ना होते। शंकर और विष्णु की पूजा करने वाले लोग आज एक दूसरे से वैसे ही दंगा फसाद कर रहे होते जैसे हिंदू-मुसलमानों में आज दंगे -फसाद होते रहते हैं जब शंकर और विष्णु के दो दंगाई संप्रदायों को एक किया जा सकता है, तब हिंदू और मुसलमान भी दो संप्रदाय हैं, इनको एक क्यों नहीं किया जा सकता? यदि हिंदू- मुसलमान एक हो सकते हैं, तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक क्यों नहीं हो सकते? यदि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक हो सकते हैं, तो अखंड भारत बनाने अथवा दक्षिण एशियाई देशों का यूनियन बनने में कोई बाधा ही नहीं है। 5% ब्रह्मणवादी हिंदू दक्षिण एशियाई यूनियन के लिए किसी तरह का खतरा नहीं बन सकते। क्योंकि यह 5% लोग यूनियन की नागरिकता लेना ही पसंद नहीं करेंगे वह अपने देश में सीमित रहेंगे। जिस प्रकार कट्टर मुसलमानों को यूनियन की सरकार में वोट का अधिकार नहीं होगा, उसी प्रकार इन 5% कट्टर हिंदुओं को भी यूनियन की सरकार के गठन में वोट का अधिकार प्राप्त नहीं होगा। जो लोग यह समझते हैं कि बौद्ध समाज को हिंदू घोषित करके ब्रह्मणवादी हिंदू लोग अपनी जनसंख्या का आकार बहुत बड़ा बना लेंगे और इस्लाम पर भारी पड़ जाएंगे, उनका निष्कर्ष शत प्रतिशत गलत है। क्योंकि बौद्ध समाज एक प्रगतिशील समाज शुरू से रहा है और ब्राह्मणवादी हिंदुत्व को शुरू से वह एक पिछड़ी विचारधारा मानता रहा है, आज भी मानता है। मास्टर की डिग्री ले चुका व्यक्ति अपने आप को फिर से स्नातक की क्लास में देखना पसंद क्यों करेगा? बौद्ध समाज को ब्राह्मणवादी हिंदू हजम कर लेंगे,इस सपने के विपरीत घटना-घट सकती है। बौद्ध समाज इन ब्राह्मणवादी हिंदुओं को सुधारने के लिए विवश कर सकता है। क्योंकि चीन,भारत, श्रीलंका और वर्मा में बौद्ध समाज की जनसंख्या बहुत बड़ी है। यदि हिंदू समाज और बौद्ध समाज के बीच दोस्ती होती है तो केवल बहुत ऊंचे संस्कारों पर ही है दोस्ती संभव है।
इतने उच्च स्तरीय संस्कारों के व्यक्ति से न तो इस्लाम मानने वालों को डरने की जरूरत होगी ना किसी अन्य धर्मावलंबियों को डरने की जरूरत होगी। यूनियन बनने से देशों के घरेलू जनसंख्या के आंकड़े प्रभावित नहीं होंगे। क्योंकि किसी व्यक्ति पर यूनियन की नागरिकता लेने का कोई दबाव नहीं होगा। यूनियन की सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जिसका समर्थन देशों की सरकारें ना करती हों। इसलिए हिंदू समाज यूनियन की सरकार का उपयोग करके किसी भी प्रकार अपनी आस्थाओं को दूसरे धर्मावलंबियों पर थोप नहीं सकता। यूनियन की सरकार में समाजवादी हिंदुओं, प्रगतिशील मुसलमानों और बौद्ध समाज का बहुमत हो सकता है। यह सभी लोग धर्मनिरपेक्ष संस्कार के और मानवतावादी संस्कार के होंगे। किंतु बहुमत के बावजूद भी यह सभी लोग मिलकर कोई कानून नहीं बना सकते। कानून बनाने के लिए यूनियन की प्रादेशिक सभा और यूनियन की देशीय सभा की मंजूरी लेना आवश्यक होगा। इस्लामिक समाज के लिए यह और अच्छा होगा। क्योंकि यूनियन की सरकार में होने वाले निर्णय में अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए इस्लामिक समाज को अपनी जनसंख्या के अधिक से अधिक हिस्से को यूनियन की नागरिकता दिलानी पड़ेगी। ऐसा तभी हो पाएगा जब इस्लामिक समाज अपने अंदर एक आत्म सुधार का आंदोलन चलाएं और वह अपनी कट्टरता से अपने आप को उबारे। यूनियन के फायदे को देखकर इस्लामिक समाज ऐसा करने से पीछे नहीं रहेगा। टिप्पणी या सुझाव दें
कुछ लोगों का आकलन है कि दक्षिण एशियाई यूनियन बनने से साझी सुरक्षा प्रणाली विकसित हो जाएगी। इसके बाद सभी देशों को अपनी अपनी सेना कम करनी पड़ेगी। यहां तक कि देशों को सेना रखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्योंकि अब तो देशों की सुरक्षा यूनियन की सेना स्वयं करेगी। इससे बड़े पैमाने पर सैनिकों की कटौती की जाएगी। परिणाम यह होगा कि जिन लोगों को आज सेना में रोजगार मिल जाता था। अब उन लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा। यानी बेरोजगारी बढ़ेगी।
उक्त आशंका की परीक्षा करने के लिए हमें रक्षा बजट के खर्च पर नजर डालना चाहिए। सन 2017- 18 भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.1% रक्षा बजट परखर्च किया था। यह रकम लगभग 3,59,854 करोड रुपए बनती है। केंद्र सरकार के कुल बजट का यह 16.8% था। जिसमेंं 25% रकम सैनिकों के वेतन पर खर्च की गई थी और 24% रकम सैनिकों के पेंशन पर खर्च की गई थी। यानी लगभग आधी रकम देश के लोगों को रोजगार देने पर खर्च की गई थी। भारत के बजट में यही पैटर्न हर साल बना रहता है। और लगभग यही पैटर्न भारत के पड़ोसी देशों के रक्षा बजट का भी है। भारत की तुलना में पाकिस्ताान अपनी अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का अधिक (2.1% की जगह 4%) प्रतिशत खर्च करता है।
पाकिस्तान भारत की तुलना में अपन केंद्रीय बजट का अधिक हिस्सा (16.8% की जगह 47.6%) रक्षा बजट पर खर्च करता है। पाकिस्तान में भी वेतन और पेंशन पर लगभग कुल बजट का आधा भाग ही खर्च होता है। भारत और पाकिस्तान का रक्षा बजट मिला दिया जाए तो दक्षिण एशिया में रक्षा पर खर्च होने वाले कुल बजट का लगभग 80% हो जाता है। इन दोनों की देशों के तुलना में नेपाल भूटान बांग्लादेश श्रीलंका मालदीव और वर्मा जैसे देशों का रक्षा बजट न के बराबर है। बांग्लादेश ने इसी वर्ष कुल 3.87 बिलियन डॉलर अपने रक्षा बजट में खर्च किया यह रकम बांग्लादेश के कुल केंद्रीय बजट का 8.3% है। इसी वर्ष नेपाल में 0.39 बिलीयन डॉलर (397 मिलियन डॉलर) और वर्मा ने 2.03 बिलियन डॉलर अपनी रक्षा बजट में खर्च किया। श्रीलंका ने इसी वर्ष 7.9 बिलियन डॉलर रक्षा बजट में खर्च किया। भूटान का रक्षा बजट लगभग शून्य होता है और म्यानमार का भी रक्षा बजट न के बराबर होता है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च के अनुसार सन 2017-18 में रक्षा बजट पर पाकिस्तान ने 12.68 बिलियन डॉलर खर्च किया था और इसी वर्ष भारत ने 66.5 अमेरिकी बिलीयन डॉलर खर्च किया था, चीन ने 250 ( या 175) बिलियन डॉलर और अमेरिका ने 648 अमेरिकन बिलियन डालर खर्च किया था। हालांकि इस वर्ष चीन सरकार ने घोषणा किया था कि उसने रक्षा बजट पर केवल 175 अमेरिकी बिलियन डॉलर खर्च किया है। इस वर्ष भारत द्वारा खर्च की गई रकम और रूस की तुलना में अधिक थी। रूस ने इसी वित्तीय वर्ष में 61.4 बिलीयन डॉलर खर्च किया था।
मजेदार बात है कि सऊदी अरब ने इसी वित्तीय वर्ष में भारत और रूस से अधिक पैसा (67.4 मिलियन डॉलर) रक्षा बजट पर खर्च किया था। चीन 1985 में अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 7% रक्षा बजट पर खर्च करता था। किंतु समय बीतने के साथ चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा कम करने लगा। सन 1918 में चीन ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2% से भी कम रकम रक्षा बजट पर खर्च किया। फिर भी यह रकम भारत की तुलना में 3 गुना है। चीन द्वारा खर्च की गई है रकम अमेरिका की तुलना में लगभग 4 गुना कम है। भारत-पाकिस्तान सहित सभी दक्षिण एशियाई देशों के रक्षा बजट को जोड़ दिया जाए तो यह है लगभग 92.98 बिलियन डालर बनता है जो अकेले चीन के रक्षा बजट का लगभग आधा है। रक्षा बजट का अध्ययन करने पर यह पता चलता है की रक्षा बजट का आधा रकम ही रोजगार पर खर्च होती है शेष आधी रकम हथियारों पर और अन्य चीजों पर खर्च होती है। इसमें से बड़ा हिस्सा दक्षिण एशिया से बाहर दूसरे देशों के पास हथियारों की खरीद पर चला जाता है। इस पैसे को रोजगार के सृजन में उपयोग किया हुआ पैसा नहीं माना जा सकता पुलिस का पुलिस और सेना की तुलना किया जाए तो पुलिस में सेना की तुलना में पैसा कम खर्च होता है लेकिन रोजगार अधिक मिलता है।
इसी प्रकार अगर कृषि क्षेत्र और पुलिस की तुलना किया जाए तो कृषि क्षेत्र में पैसा कम खर्च होता है और पुलिस की तुलना में रोजगार अधिक मिलता है। निष्कर्ष यह है कि जितना पैसा रक्षा बजट में खर्च किया जाता है उससे कम पैसा कृषि और पुलिस विभाग में खर्च करके सेना की तुलना में अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। टिप्पणी या सुझाव दें