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भारत में धर्मनिरपेक्षता शुरू से चर्चा और विवाद का विषय रही है। अंग्रेजों से देश को आजाद करने के लिए हिंदू मुसलमानों का साझा संघर्ष जरूरी था. ऐसा तभी संभव था, जब अंग्रेजो के खिलाफ लड़ रही भारत के प्रमुख संस्था यानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत में सभी धर्मों- खास करके हिंदू और मुसलमानों के प्रति निष्पक्ष भाव रखें. यही निष्पक्षता धर्मनिरपेक्षता के रूप में जानी गई. अंग्रेजों ने भारत छोड़ते समय हिंदू मुसलमानों के बीच दरार चौड़ी कर दिया और उन्होंने भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर मुहर लगा दी. इसलिए अंग्रेजों के जाते ही हिंदुस्तान 2 देशों के रूप में जाना गया. एक भारत और दूसरा पाकिस्तान. यह विभाजन न तो हिंदुओं को मंजूर था और न मुसलमानों को. किंतु यह विभाजन अंग्रेजों को मंजूर था. क्योंकि हिंदू और मुसलमान समाज के बीच दरार पैदा करना और नफरत पैदा करना अंग्रेजों की पुरानी नीति थी. इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो संगठन हिंदूवादी रास्ते पर चलते थे और मुसलमानों के विरुद्ध थे या फिर मुस्लिमवादी रास्ते पर चलते थे और हिंदुओं के विरुद्ध थे- ऐसे दोनों ही परस्पर विपरीत संगठनों को अंग्रेजों ने संरक्षण दिया. क्योंकि वह जानते थे कि ऐसे ही संगठन भारत में हिंदू मुसलमानों को अंग्रेजों के विरुद्ध एकताबद्ध नहीं होने देंगे. भारत में राज करने के लिए हिंदू मुसलमान में नफरत पैदा करना अंग्रेजों की प्रशासनिक जरूरत थी। जो हिंदूवादी संगठन और जो मुस्लिमवादी संगठन अंग्रेजों से लगातार संरक्षण पाते रहे. उन्होंने अंग्रेजों के विदाई से पहले देश विभाजन की मांग रख दी. अपनी नीतियों के कारण अंग्रेजों को यह मांग सहज लगी और उन्होंने हिंदुस्तान को 2 देशों में विभाजित कर दिया।
क्योंकि हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिंदू और बहुसंख्यक मुस्लिम एक दूसरे के साथ रहने के आदती हो चुके थे, इसलिए विभाजन के पक्ष में नहीं थे। किंतु अंग्रेजों की ताकत के सामने और उस समय के शक्तिशाली नेता जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना के सामने उनकी एक न चली। परिणाम स्वरूप जनता की इच्छा के विरुद्ध हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ. यह बंटवारा उसी ढंग से हुआ- जैसे एक शरीर का एक अंग उखाड़ कर फेंक दिया जाए और उस शरीर के दो टुकड़े हो जाए। एक शरीर का इस तरह से अंग भंग बहुत दर्दनाक था और यह दर्द विभाजन के वक्त सांप्रदायिक दंगों के रूप में दिखाई पड़ा. जिसमें कुछ आंकड़ों के मुताबिक लगभग 10,00,000 लोग मारे गए. इतनी बड़ी संख्या में नरसंहार को देखकर महात्मा गांधी जैसे लोगों को भी दिल से न चाहते हुए भी विभाजन पर मुहर लगानी पड़ी. उनकी स्थिति एक ऐसे पिता की थी- जिसके 2 बच्चों ने घर में बटवारा करने का ठान लिया था और हिंसा पर उतारू हो गए थे. परिवार में खून खराबा देखकर पिता को बच्चों की बात माननी पड़ी. किंतु पिता के निष्पक्षता उसके अंतिम सांस तक बनी रहे इसीलिए विभाजन के बाद भी महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे तमाम लोग जबरदस्ती भारत-पाकिस्तान में से किसी एक देश नागरिक भले ही बना दिया गए हो किंतु वह अंतरात्मा से किसी एक देश के नागरिक नहीं बन पाये. और ऐसा केवल महात्मा गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे लोगों के साथ ही नहीं हुआ, ऐसा भारत और पाकिस्तान के करोड़ों लोगों के साथ हुआ. यह विभाजन भारत और पाकिस्तान के करोड़ों लोगों के साथ मानसिक बलात्कार जैसा पीड़ादायक था. किंतु हिंसा के सामने, खून खराबे के सामने और नरसंहार के सामने इन सभी लोगों ने इस मानसिक बलात्कार को सहा और किसी न किसी एक देश में उस देश के नागरिक के रूप में रहने के लिए विवश हो गये. यह घटना कुछ वैसे ही घटी जैसे एक पिता अपने बच्चों के बीच बंटवारा तो नहीं चाहता लेकिन जब बच्चे जबरदस्ती बंटवारा कर ही लेते हैं, तो मां-बाप का प्रेम दोनों बच्चों के प्रति होते हुए भी उसे किसी एक बच्चे के घर में रहना पड़ता है और दूसरे बच्चे को आशीर्वाद देते हुए दिन गुजारना पड़ता है।

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