भारतीय संस्कृति में राष्ट्रवाद की परिभाषा संपूर्ण विश्व से जुड़ी थी और विश्व राष्ट्र का पर्यायवाची था। वसुधैव कुटुंबकम की भावना और विश्व का कल्याण की भावना भारत के लोगों की रग-रग में सदियों से मौजूद थी। किंतु संघ ने भूलवश भारतीय संस्कृति में राष्ट्रवाद को जो परिभाषा थी, उसका प्रचार न करके राष्ट्रवाद की उस परिभाषा का प्रचार किया, जो ईसाई धर्म के पोप के आतंक से बचने के लिए यूरोप की धरती पर 15 वीं व 16 वीं शताब्दी में पैदा किया गया था। यूरोपियन राष्ट्रवाद की परिभाषा संघ ने अपने कार्यकर्ताओं को सिखाया। राष्ट्रवाद की यही परिभाषा पाकिस्तान के सत्ताधीशों ने अपने देश के लोगों को सिखाया।
इसी यूरोपियन परिभाषा के कारण एक ही परिवार के दो लोग एक दूसरे के शत्रु बन गए। अपना साझा इतिहास, अपनी साझी संस्कृति और सभ्यता, अपनी साझी भाषा, अपनी साझी विरासत और अपनी साझे खानपान को भूलने लगे। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अपने सांझेपन को लोग भूल जाएं- इसके लिए अकूत धन खर्च करके विधिवत भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों ने प्रयास किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब अपने ही बुने जाल में फंसा हुआ महसूस कर रहा है। आज जब उसके प्रशिक्षित कैडर ने भारत के सत्ता की बागडोर संभाल लिया है, तब राष्ट्रवाद की जिस यूरोपियन परिभाषा को प्रचारित कर दिया, वही परिभाषा अब स्वयं संघ के सपनों को पूरा करने में बाधा बन गई है। अखंड भारत का सपना पूरा करने के लिए जरूरी है कि संघ आत्म मंथन करें, आत्म संशोधन करें, आत्म पुनरीक्षण करें और एक बार फिर राष्ट्रवाद की परिभाषा के लिए अपनी सांस्कृतिक अंतरात्मा में झांके और अपने कैडर को राष्ट्रवाद की भारतीय परिभाषा से प्रशिक्षित करें। यह कार्य संघ के अखंड भारत के सपनों को साकार कर सकेगा।
इतिहास अपने आपको हूबहू नहीं दोहराता। वह चूड़ीदार गति से चलता है, इसलिए दोहराता हुआ महसूस होता है। इसलिए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सीमाएं अब दुबारा ढ़हाई नहीं जा सकतीं। किंतु यूरोपियन यूनियन के तर्ज पर एशियन यूनियन की एक नई इकाई पैदा की जा सकती है। जिसमें भारत का ऐतिहासिक नक्शा एक बार फिर एकजुट हो जाएगा और भारत की ऐतिहासिक गौरव और गरिमा वापस आ जाएगी। यूरोप के जिस राष्ट्रवाद का प्रचार राष्ट्रीय सेवक सेवक संघ ने अपने कैडर में किया, उस राष्ट्रवाद को यूरोप के धरती पर स्वयं अप्रासंगिक और निरर्थक मान लिया गया। इसीलिए संप्रभुता के सिद्धांत में संशोधन किया गया और राष्ट्रवाद की परिभाषा को दोबारा परिभाषित किया गया। इसी के परिणाम स्वरूप यूरोपियन यूनियन का गठन हुआ। यूरोप की एक संसद, यूरोप की एक सरकार, यूरोप की एक करेंसी नोट, एक सेना जैसी तमाम चीजें साझी हो गई। इस साझेपन को यूरोप के किसी भी देश ने अपनी प्रभुसत्ता पर हमला नहीं माना और अपनी राष्ट्रीयता और अपनी पहचान के साथ किसी तरह का समझौता नहीं माना।
यूरोप के 27 देश यूनियन बनाने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे की अलग अलग रहने के अवस्था में उनके पास जो समृद्धि थी, साझा होने के बाद वह और बढ़ गई। उनकी वैश्विक ताकत साझात के कारण और बढ़ गई। उनकी करेंसी नोट की शक्ति आज विश्व शक्ति बन गई। उनकी साझी सेना अब विश्व की एक अजेय शक्ति बन गई। अनुभवों के कारण अमेरिका को अपनी सत्ता के सामने चुनौती महसूस हुई और उसने अपने सगे भाई इंग्लैंड को यह समझाने में कामयाब रहा कि ब्रिटेन यूरोपीयन यूनियन से अलग हो जाए। ब्रिटेन अलग तो हो गया, किंतु ब्रिटेन में वहां की जनता को यह विखंडन स्वीकार्य नहीं है और फिर से यूरोपियन यूनियन मैं शामिल होने की मुहिम ब्रिटेन की राजनीति का हिस्सा बन गई है।
आधुनिक राष्ट्रवाद का जनक फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड जैसे देशों ने स्वयं राष्ट्रवाद की परंपरागत परिभाषा को त्याग दिया हैं। यूरोप के देश राष्ट्रवाद की परंपरागत परिभाषा को स्वयं अपनी प्रभुसत्ता के लिए खतरा मानने लगे हैं। ऐसी स्थिति में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे दुनिया के जिन देशों ने राष्ट्रवाद की यूरोपियन परिभाषा को अपनाया था- उन सबके सामने राष्ट्रवाद की और प्रभुसत्ता की अपनी परिभाषा को पुनर्परिभाषित करने की चुनौती पैदा हो गई है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारत का सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी दोनों इस चुनौती का सामना करेंगे और राष्ट्रवाद तथा प्रभुसत्ता की नई परिभाषा को स्वीकार करेंगे। क्योंकि ऐसा करके ही उनके कैडर का सपना यानी अखंड भारत का सपना पूरा होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी जैसे बड़े संगठन यूरोपियन यूनियन के दिशा में काम करना शुरू करेंगे, तो भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा एशिया यूनियन के पक्ष में खड़ा हो जाएगा और एशियाई यूनियन का सपना जो एक यूटोपिया सा महसूस होता है- वह वास्तविकता में बदलता हुआ दिखाई पड़ेगा। यह ऐतिहासिक कार्य करने में न तो संघ पीछे रहेगा और न सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी पीछे रहेगी। क्योंकि यह दोनों संगठन यदि एशियाई यूनियन की दिशा में सहयोग नहीं करते तो उनके अपने ही कैडर में यह आवाज उठने लग जाएगी कि संघ अपने मिशन से भटक गया है और वह केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए और भारत की सत्ता को कब्जा करने का एक हथियार मात्र बन गया है। इससे खुद संघ के कैडर में प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करेंगे। क्योंकि संघ के सभी कार्यकर्ता राज्य सत्ता के भ्रष्टाचार से पैदा हुए धन में न तो हिस्सेदार बने हैं और न तो करोड़ों लोगों को इस धन में हिस्सेदार बनाना संभव ही है