धर्मनिरपेक्षता का रास्ता चुनने के बावजूद भी न तो भारत सरकार सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष आचरण कर सकी और न तो भारत के राजनीतिक दल सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष हो सके। सरकार द्वारा संचालित आकाशवाणी द्वारा रामचरितमानस का 10 मिनट का पाठ सुबह सुबह 7:00 बजे रेडियो पर पूरा देश सुनता था और यह आवाजें उठ रही थी कि इसकी जरूरत क्या है? यदि रामचरितमानस का पाठ आकाशवाणी से प्रसारित करना आवश्यक था, तो दूसरे धर्म ग्रंथों के पाठ का प्रसारण भी आवश्यक था. किंतु भारत के सरकार ने ऐसा नहीं किया. ऐसी तमाम घटनाओं ने यह प्रमाणित किया कि कांग्रेस द्वारा संचालित भारत की सरकार कहने सुनने में और लिखने पढ़ने में भले ही धर्मनिरपेक्ष हो, किंतु सरकार का आचरण धर्मनिरपेक्ष नहीं है. इससे गैर सनातन समाज क्षुब्ध हुआ और कांग्रेस की नीयत पर सवाल उठाने लगा। यह बात न तो भारत के मुसलमानों को अच्छी लगी और न तो भारत के जैन, बौद्ध, सीख, ईसाई और आर्य समाज के लोगों को अच्छी लगी। जब जब कांग्रेस के सामने यह प्रश्न उठाया गया कि वह हिंदुओं की तरफ खास करके ब्राह्मणवादी सनातन धर्म की ओर झुकी रहती है, तब तब कांग्रेसी नेता दबी जुबान से यह कहकर काम चलाते रहे कि- “यही समाज देश में बहुमत में है. बहुमत का सम्मान करना आवश्यक है. अगर हमें चुनावी राजनीति करना है तो बहुमत का वोट चाहिए और बहुमत के वोट के लिए हमें कम से कम रामचरितमानस के पाठ जैसा बहुमत के धर्म और उनकी आस्थाओं को अच्छा लगने वाला कार्य करना पड़ेगा”। कांग्रेस के इस आचरण को देखकर सभी धर्मों के समुदाय अपने-अपने धर्म की वकालत करने वाले राजनीतिक दलों का गठन करने की प्रेरणा पाया। धर्मनिरपेक्षता के रास्ते की निंदा करते हुए सिख धर्म के कुछ लोगों ने अकाली दल का गठन कर लिया। इस्लाम के रास्ते पर चलने के लिए देश के कई प्रदेशों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल पैदा हो गए। भारत में कुछ ऐसे दल भी पैदा हो गए जो महात्मा बुद्ध को केंद्र में रखकर राजनीति शुरू की है। यद्यपि जैन धर्म के समाज ने और आर्य समाज ने अपने अपने राजनीतिक दल पैदा नहीं किए. किंतु राजनीति में उनका मजबूत दखल बना रहा।
धर्मनिरपेक्ष संविधान बनने के बाद भी कांग्रेस ने कभी हिंदुओं के तरफ अपना झुकाव दिखाया और कभी मुसलमानों की तरफ. तब भारत के अन्य राजनीतिक दलों को प्रेरणा मिली कि वह मुस्लिम समाज को अपने वोट बैंक क्यों न बना लें। उत्तर भारत में कुछ ऐसे राजनीतिक दल सामने आए जिनका नेतृत्व किसी न किसी हिंदू व्यक्ति के हाथ में था लेकिन उनका झुकाव मुस्लिम वोट बैंक की तरफ था। वह हिंदुओं- खास करके ब्राह्मणवादी सनातन धर्म के अंधविश्वास की आलोचना करने लगे. किंतु मुसलमानों के अंधविश्वास की आलोचना करने की हिम्मत नहीं पड़ी। इसके पीछे उनका तर्क यह होता था कि यदि हम मुसलमानों के आस्थाओं पर चोट करेंगे, तो हम उनका वोट बैंक के इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। उनका तर्क था कि निष्पक्ष बोलने से न तो हिंदू वोट मिलेगी और न मुसलमान वोट मिलेगी। इसलिए भले ही सिद्धांत रूप में निष्पक्षता उचित हो और धर्मनिरपेक्षता उचित हो, किंतु व्यवहारिक रूप में कोई भी राजनीतिक पार्टी निष्पक्ष नहीं रह सकती. उसे किसी न किसी एक पक्ष में झुकना ही होगा। यह चुनावी राजनीति की मजबूरी थी। इसी मजबूरी ने कांग्रेस को पहले ब्रह्मणवादी सनातन धर्म की तरफ झुकाया और बाद में इसी मजबूरी ने कांग्रेस को मुसलमानों की तरफ झुकाया। राजीव गांधी के जमाने में घटी शाहबानो केस मील का पत्थर साबित हुई जिसने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस वोट बैंक के लिए मुस्लिम समाज के आत्मघाती आस्थाओं का भी सम्मान कर सकती है. जिससे खुद मुस्लिम समाज का नुकसान है. अगर वोट बैंक के लिए मुस्लिम समाज को अंधविश्वास का जहर दे सकती है तो वोट बैंक के लिए हिंदू समाज को जहर क्यों नहीं देगी? ऐसे प्रश्न कांग्रेस से हिंदुओं को भी अलग किया और मुसलमानों को भी. धीरे धीरे न तो ब्राह्मणवादी सनातन धर्म के लोग कांग्रेस के वोट बैंक रहे और न तो मुस्लिम समाज के लोग.
जब ब्रह्मणवादी सनातन धर्म का समाज कांग्रेस से अलग होने लगा तो भारतीय जनता पार्टी नाम की एक नई पार्टी ने उनको अपने खेमे में मिलाना शुरू किया. इस पार्टी ने हिन्दू समाज के हर अंधविश्वास को महिमामडित करने का काम शुरू किया. उसने नीति के तौर पर अपनाया कि वह मुस्लिम समाज के अंधविश्वासों को कदापि बर्दाश्त नहीं करेगी और हिंदू समाज के हर अंधविश्वास को आस्था के सम्मान के नाम पर सम्मानित करेगी. जिससे उसको एक नया वोट बैंक मिले और वह सत्ता तक पहुंच सके और कांग्रेस को सत्ता से हटा सके। ध्यान से देखें तो यह भी भाजपा की मजबूरी थी. ऐसा नहीं था कि भाजपा के सभी नेता अंधविश्वास के समर्थक थे. लेकिन वह जानते थे कि अंधविश्वास एक बड़ा वोट बैंक खींचने के लिए चुंबक है. इसलिए उन्होंने केवल वोट बैंक के लिए ब्रह्मणवादी सनातन समाज के अंधविश्वासों को खाद पानी दिया. लेकिन व्यक्तिगत तौर पर वह अंधविश्वासी नहीं थे। भाजपा की यह मजबूरी भी चुनावी राजनीति से पैदा हुई थी। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का वकालत करने वाली कांग्रेस ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के अंधविश्वासों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया. बाद में यही काम भारतीय जनता पार्टी ने किया. किंतु उसने केवल हिंदू समाज के अंधविश्वासों को शरण दिया और मुस्लिम समाज के अंधविश्वासों की घोर निंदा किया।