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दलित समाज अपनी सुरक्षा की गारंटी के लिए कूदेगा ‘अखंड भारत आंदोलन’ में

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एशियाई देशों को एकजुट करने का अभियान भारत के अनुसूचित जाति और जनजाति समाज को एक सुनहरा मौका दिखाई पड़ रहा है। इस निष्कर्ष के कई कारण हैं। पहला यह है कि भारत में जब से ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतें सत्ता तक पहुंची है, तब से भारत का दलित समाज बहुत डरा और घबराया हुआ है। ब्रह्मणवादी ताकतें भविष्य में क्या करेंगी, इस विषय में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि दलित समाज का डर सत्य पर आधारित न हो, किंतु ब्रह्मणवादी ताकतें अपनी कथनी और करनी को बार-बार बदलते रहते हैं। इसलिए उनके आश्वासन पर दलित समाज को भरोसा नहीं होता। उनको लगता है कि भविष्य में हिंदू राष्ट्र के नाम से जो शासन-प्रशासन पैदा होगा, उस में दलित समाज की भूमिका दासों जैसी होगी। उनको पढ़ने लिखने का अधिकार समाप्त कर दिया जाएगा, उनको प्राप्त आरक्षण का अधिकार समाप्त कर दिया जाएगा, धंधा बिजनेस से उनको हटा दिया जाएगा, उनको गुलामों की तरह रखा जाएगा, जिसमें उनको केवल आधे पेट खाना देकर पूरे दिन काम कराया जाएगा। दिल को कंपा देने वाली छुआछूत की व्यवस्था दोबारा से वापस आ जाएगी। संपत्ति, माता-पिता दादा-दादी के जन्म और शिक्षा संबंधी कागजातों को न दिखा पाने के कारण इन की नागरिकता उसी तरह समाप्त कर दी जाएगी, जैसा असम में कर दिया गया है।
क्योंकि ब्रह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतें अतीत की व्यवस्था को फिर से वापस लाना चाहती हैं। इसलिए वर्ण व्यवस्था की वापसी की डर भारत के दलित समाज को हमेशा सताता रहता है। उनको लगता है कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने दलित समाज को जिस वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के दलदल से बाहर निकाला था, ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतें उनको फिर उसी दलदल में धकेल देंगी।
भारत में अंबेडकरवाद ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की प्रतिक्रिया में तेजी से फैल रहा है। दलित समाज के लोगों के घरों में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के पूज्य देवी देवताओं की तस्वीर गायब होने लगी हैं। उनकी जगह महात्मा बुद्ध, भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले आदि महापुरुषों की तस्वीर लेने लगी हैं। यह इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में संपूर्ण दलित समाज ब्राह्मणवादी हिंदुत्व से दूरी बना लेगा और इसकी बड़ी संभावना है कि पूरा समाज बौद्ध धर्म अपना लेगा।
लेकिन केवल बौद्ध धर्म अपना लेने से दलित समाज को अपनी सुरक्षा नहीं दिखती। क्योंकि उनको लगता है कि भारत की जनसंख्या में उनका प्रतिशत कम है और उनके समाज की समृद्धि, शिक्षा और जागरूकता भी कम है। इसलिए ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतों को वह सत्ता से नहीं हटा सकते। उनको महसूस होता है कि जब तक भारत के राज्य सत्ता पर ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतें काबिज रहेगी, तब तक दलितों की सुरक्षा खतरे में रहेगी। इसी कारण भारत में दलित समाज धीरे-धीरे भारत के मुसलमानों से नजदीकियां बढ़ा रहा है। उसे लगता है कि दो डरे हुए समुदाय एक साथ संगठित होकर ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतों को सत्ता से हटा सकते हैं और अपने आप को सुरक्षित कर सकते हैं।
दलित समाज अपने संगठन में भारत के पिछड़े वर्ग को भी शामिल करना चाहता है। क्योंकि उनको लगता है कि भारत का पिछड़ा समाज हिंसा में, क्रूरता में, सामाजिक-राजनीतिक अन्याय और आर्थिक अन्याय में विश्वास नहीं करता। ये दुर्गुण इस समाज के संस्कार में कभी नहीं रहे। इनका दृष्टिकोण शुरू से ही समाज को साथ लेकर चलने का रहा और समाज में हर एक व्यक्ति को न्याय देने का रहा। उनको लगता है कि भारत के पिछड़े समाज के समाजवादी संस्कारों के कारण इस समाजवादी हिंदुत्व की ताकतों को अपने साथ जोड़ने पर उनका पलड़ा भारी हो जाएगा और वह राजनीतिक अखाड़े में भारत के ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतों का मुकाबला कर पाएंगे। इसीलिए एससी-एसटी, ओबीसी और मुस्लिम गठजोड़ की प्रक्रिया भारत में तेजी से आगे बढ़ रही है।
दक्षिण एशियाई देशों को जोड़ने का अभियान इस मामले में दलित समुदाय के लिए अच्छा मौका महसूस हो रहा है। क्योंकि दलित समाज को लगता है कि दक्षिण एशिया के सभी देश जब एकजुट हो जाएंगे तो उसमें ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतें जनसंख्या के अनुपात में कमजोर हो जाएंगी और सत्ता में बने रहना उनके लिए संभव नहीं रहेगा।
कथित रूप से हिंदू राष्ट्र कहे जाने वाले नेपाल में दलितों की हालत भारत से भी ज्यादा बदतर है। भारत के दलित समाज को लगता है कि दक्षिण एशियाई देशों की एकजुटता के कारण वह नेपाल के दलित समाज को अपने गले लगा पाएंगे और उनका भी उद्धार कर पाएंगे। एशियाई देशों के यूनियन के माध्यम से अखंड भारत बनाने के अभियान में दलित समाज शामिल हो रहा है और पूरा उत्साह दिखा रहा है। क्योंकि उसको लगता है कि भारत के ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतों का जो हमला उनके ऊपर भविष्य में होने वाला है, उस हमले से सुरक्षा के लिए बर्मा, श्रीलंका तथा भविष्य में चीन का बौद्ध समाज उनकी सुरक्षा में कूदेंगे। लेकिन ऐसा तभी हो पाएगा जब एशिया यूनियन बन चुका हो और सभी देशों के बौद्ध धर्म अनुयाई आपस में एक दूसरे से मिलने जुलने लगे हों। भारत के दलितों को महसूस होता है कि भारत का दलित समाज बौद्ध समाज का हिस्सा बनकर दक्षिण एशियाई क्षेत्र में एक ताकत बन सकता है और ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की ताकतों के हमले से सदा सदा के लिए अपने आप को सुरक्षित कर सकता है।

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