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भारत के दक्षिणपंथी मुसलमान भी करेंगे दक्षिण एशियाई यूनियन का समर्थन

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भारत के दक्षिणपंथी मुस्लिम समाज भी एशियाई यूनियन के माध्यम से अखंड भारत बनाने के प्रयास का समर्थन करेंगे। इस निष्कर्ष के कई कारण हैं। पहला तो यह कि भारत का मुस्लिम समाज यह देख चुका है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे दो राष्ट्र बनने के बावजूद भी वहां के 90% बहुसंख्यक मुसलमानों की हालत भारत के मुसलमानों से अच्छी नहीं है। इससे भारत के मुसलमानों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि अलग देश बनाना समस्या का समाधान नहीं है।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में मुट्ठी भर संपन्न मुसलमानों ने बाकी 90% बहुसंख्यक मुसलमानों को अपना आर्थिक गुलाम बना लिया है और अपने बैलों की तरह उनको जोत रहे हैं। इन देशों की सकल घरेलू आय में बहुसंख्यक मुसलमानों का हिस्सा न के बराबर है। संसद में पेश वोटरशिप के प्रस्ताव पर हामिद अंसारी जैसे भारत के अमीर मुसलमानों की प्रतिक्रिया देखकर यही लगता है कि जो स्थिति पाकिस्तान और बांग्लादेश में है कमोबेश वैसा ही भारत में भी है। इसलिए लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए अपना अलग देश बनाने की दवा निरर्थक और एक्सपायर साबित हुई है। यह एक्सपायर दवा भारत के मुसलमान फिर दोबारा खाना पसंद नहीं करेंगे। इसलिए वह एशियन यूनियन के साथ रहना बेहतर मानेंगे।
भारत के मुसलमानों का यही अनुभव उनको भारत के अंदर अब कोई तीसरा मुस्लिम देश बनाने के किसी प्रयास में शामिल नहीं होने देगा। क्योंकि पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान भारत के मुसलमानों से भी ज्यादा दुखी हैं। बहुसंख्यक मुसलमानों की आर्थिक हालात भारत के मुसलमानों की तुलना में ज्यादा बदतर है।
भारत के मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा अब उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुका है और वह जान चुका है कि आने वाला युग विज्ञान का युग है। धार्मिक मूल्यों से अब आगे समाज नहीं चल सकता। समाज संवैधानिक मूल्यों से ही चलेगा। वह जान चुके हैं कि जब जब संवैधानिक मूल्य अपने धार्मिक मूल्यों से टकराएंगे, तब तब संवैधानिक मूल्यों को ही प्राथमिकता देना होगा। इसी में सबकी भलाई है। क्योंकि अगर सभी धर्म के अनुयाई संवैधानिक मूल्यों के बजाय अपने अपने धार्मिक मूल्यों को प्राथमिकता देने लगेंगे तो एक दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहना संभव नहीं रह जाएगा। भारत के मुसलमान यह बात बहुत आसानी से समझने में सक्षम हो चुके हैं कि निर्यात और युद्ध सामग्री के लिए धन इकट्ठा करने की मजबूरी के कारण किसी भी देश की सरकार अपने ही देश के बहुसंख्यक लोगों को जानबूझकर पैसे से तंग रखती है। इसलिए बहुसंख्यक लोग गरीब रहते हैं, बेरोजगार रहते हैं, बीमार रहते हैं, अशिक्षित रहते हैं और अपनी प्रतिभा का विकास करने में नाकाम रहते हैं।
कल्पना करिए कि भारत में मुसलमानों का एक तीसरा देश बन भी गया तो उस देश की सरकार के सामने भी यह मजबूरियां रहेंगी। ये मजबूरियां उस काल्पनिक देश के बहुसंख्यक लगभग 90% मुसलमानों को आर्थिक रूप से गुलाम बना देंगी। इसलिए अलग देश बनाना 21वीं शताब्दी का कोई समाधान नहीं रहा। अब वैश्वीकरण और साझेदारी का युग है और उस साझीदारी में रहना समस्या का समाधान है। क्योंकि जब पड़ोसी देशों से दोस्ती हो जाएगी तो सरकार को युद्ध सामग्री के लिए खर्च न के बराबर करना पड़ेगा। देशों के बीच साझेदारी हो जाने से निर्यात की मजबूरी में अपने देश के नागरिकों को आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की जरूरत भी लगभग खत्म हो जाएगी। वोटरशिप अधिकार कानून बनने से सभी लोगों को दक्षिण एशियाई नागरिक के रूप में नियमित सरकार से इतनी धनराशि मिल पाएगी जितनी कि वह किसी एक देश के नागरिक के रूप में प्राप्त नहीं कर सकते। अखंड भारत के साझा शासन प्रशासन में रहने के इतने लाभों को देखकर भारत का कोई भी मुसलमान यह नहीं चाहेगा कि वह अखंड भारत के प्रयास का विरोध करें और अपने ऊपर भारत में तीसरा मुस्लिम देश बनाने के आरोप के कलंक का चादर ओढ़े

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