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अपने समाज को धार्मिक अंधविश्वासों का जहर पिलाना वोट बैंक के लिए जरूरी

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भारत और पाकिस्तान की राजनीति के समकालीन इतिहास को देखा जाए तो यह बहुत स्पष्ट हो जाती है कि दोनों ही देशों में धार्मिक अंधविश्वासों को वोट बैंक में केवल इस तरह इस्तेमाल किया गया. क्योंकि दोनों ही देशों ने सरकार बनाने के लिए चुनाव कराने की व्यवस्था को अपनाया। इसलिए जिस तुष्टीकरण का आरोप कांग्रेश पर या भारतीय जनता पार्टी पर या फिर अन्य राजनीतिक दलों पर लगता है वह तुष्टिकरण वोट बैंक की राजनीति से पैदा हुआ और वोट बैंक की राजनीति निर्वाचन प्रणाली के कारण पैदा हुई. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस भी देश में निर्वाचन प्रणाली होगी, उस देश के समाज में काम करने वाले राजनीतिक पार्टियां न तो निष्पक्षता का बर्ताव कर सकती हैं और न तो धर्मनिरपेक्षता का बर्ताव कर सकती हैं. क्योंकि निष्पक्षता और धर्मनिरपेक्षता दोनों इतनी अधिक वोट हासिल करने में बाधा बन जाती हैं जितनी वोट चुनाव जीत कर सरकार बनाने के लिए जरूरी होता है। निर्वाचन प्रणाली के तमाम दोषों में से अंधविश्वास को बढ़ाने का दोष प्रमाणित होता है। यदि भारत में मुसलमानों की और हिंदुओं की जनसंख्या बराबर होती तो भारत की सरकार दोनों ही समाजों के प्रति निष्पक्ष और धर्मनिरपेक्ष आचरण कर पाती है. किंतु क्योंकि मुसलमान समाज अल्पसंख्यक था और बाकी समाज बहुसंख्यक था, इसलिए भारत में सच्चे अर्थों में कोई भी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल पैदा नहीं हो सका।
यदि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान जैसे दक्षिण एशियाई देश यूरोपियन यूनियन की तरह एक यूनियन बनाने के रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं तो इस क्षेत्र का ताना-बाना बदल जाएगा। भारत में लगभग 17 करोड़ मुसलमान है, पाकिस्तान में लगभग 21 करोड मुसलमान है और बांग्लादेश में लगभग 2 करोड़ मुसलमान है, अफगानिस्तान में एक करोड़ मुसलमानों को भी जोड़ लिया जाए तो मुसलमानों की संख्या इस क्षेत्र में कुल लगभग 42 करोड हो जाती है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल के हिंदुओं की संख्या जोड़ लिया जाए तो यह संख्या लगभग 120 करोड़ होती है। हालांकि इस क्षेत्र में मुसलमान फिर भी हिंदुओं की जनसंख्या की तुलना में आधे से भी कम बने रहेंगे. किंतु अल्पसंख्यक की श्रेणी में नहीं रहेंगे। और इन दोनों के प्रति दक्षिण एशियाई सरकार निष्पक्ष बर्ताव भी कर सकती है और धर्मनिरपेक्ष भी रह सकती है। जैन समाज, सिख समाज, आर्य समाज, बौद्ध समाज की जनसंख्या को देखते हुए दक्षिण एशियाई सरकार के सामने धर्मनिरपेक्ष संविधान अपनाने और धर्मनिरपेक्ष आचरण करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा. दक्षिण एशियाई सरकार में यह प्रश्न भी खत्म हो जाएगा कि धर्म के आधार पर जब पाकिस्तान बना, तो भारत को धर्म के आधार पर हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं बनना चाहिए था? यह प्रश्न अप्रासंगिक और अनावश्यक हो जाएगा, क्योंकि दक्षिण एशियाई यूनियन की दिशा में आगे बढ़ते ही हिंदू मुसलमान के बीच नफरत और दरार का जो बीज अंग्रेजों ने बोया था, वह अप्रासंगिक हो जाएगा, निरर्थक और अनावश्यक हो जाएगा. तब यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाएगा- दक्षिण एशियाई समाज को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने के लिए इस क्षेत्र में मौजूद सभी धर्म में एकता के तत्व क्या है? उनमें समानता के तत्व क्या है? उनमें एकजुटता के तत्व क्या है? उनमें सामंजस्य के तत्व क्या है?… आदि आदि।
दक्षिण एशियाई यूनियन या अखंड भारत का निर्माण होते ही ऐसा नहीं होगा कि दक्षिण एशियाई सरकार,, दक्षिण एशियाई संसद और दक्षिणी एशियाई अदालत ही धर्मनिरपेक्ष रहे, अपितु इस की संगत का असर इस क्षेत्र के सभी देशों की सरकारों पर भी पड़ेगा, इससे धर्मनिरपेक्षता का महत्व और उसकी कीमत इस क्षेत्र में मौजूद देशों की सरकारों को भी समझ में आने लगेगी. परिणाम स्वरूप आज जो सरकार हैं, किसी न किसी धर्म के पक्ष में झुकी हुई हैं, वह सरकारें भी धर्मनिरपेक्षता की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होंगी. इसका एक अच्छा परिणाम होगा कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र सांप्रदायिक हिंसा से सदा सदा के लिए मुक्त हो जाएगा. संप्रदायिक हिंसा और यूरोपियन राष्ट्रवाद के कारण यह क्षेत्र जिस आतंकवादी हिंसा से ग्रस्त है, वह आतंकवाद भी सदा सदा के लिए मिट जाएगा. क्योंकि अब यूरोपियन राष्ट्रवाद के आधार पर अलगाववाद की हर मांग अप्रासंगिक हो जाएगी। कुल मिलाकर अखंड भारत के निर्माण से दक्षिण एशियाई परिक्षेत्र में एक सच्ची धर्मनिरपेक्षता का उदय होगा।

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