देशों की निर्वाचित सरकारों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी रहती है कि वह टैक्स की बड़ी धनराशि पड़ोसी देशों से युद्ध के लिए हथियारों की खरीद पर और लड़ाकू विमानों की खरीद पर खर्च करें। क्योंकि निर्वाचित सरकारें धनवानों के दबाव में रहती हैं। इसलिए युद्ध में खर्च होने वाले पैसे और हथियारों तथा विमानों की खरीद में खर्च होने वाले पैसे से जो देश में अभाव पैदा होता है, उस अभाव में धनवान लोग हिस्सेदारी नहीं करते। वह टैक्स देने के लिए तो तैयार होते हैं लेकिन अभाव में हिस्सेदारी करने के लिए तैयार नहीं होते। इतना ही टैक्स देते हैं जिससे उनके जीवन स्तर और उपभोग का स्तर कम न हो और उनका परिवार अभाव का सामना न करें। ऐसी परिस्थिति में अभाव का सारा बोझ देश के निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग को उठाना पड़ता है। इसलिए देश भक्ति के खर्च का बोझ सारा का सारा निम्न और मध्यम वर्ग के कंधे पर जाता है और उच्च वर्ग देशभक्ति के खर्च का बोझ उठाने से अपने आप को अलग कर लेता है। इसीलिए सभी देशों का धनवान वर्ग सुरक्षा के नाम पर अपने अपने देश के रक्षा बजट को बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डालता रहता है और पड़ोसी देशों से मित्रता नहीं होने देता।
सभी देश की सरकारें यह जानती हैं कि पड़ोसी देशों के साथ साझी अदालत बनाकर सीमा संबंधी विवादों को खत्म किया जा सकता है, इसके बावजूद सरकारें अपने अपने देश के धनवानों के सामने मजबूर होती हैं। परिणाम स्वरूप सीमा संबंधी विवाद साझी अदालतों के माध्यम से हल करने की बजाए युद्ध के माध्यम से हल करने के लिए विवश होती हैं। रक्षा बजट लगातार बढ़ाने की मजबूरी में जो पैसा सरकारें बेरोजगारों को रोजगार देने में खर्च कर सकती थीं, वह पैसा युद्ध के लिए हथियार खरीदने और लड़ाकू विमान खरीदने के लिए देशी विदेशी कंपनियों को देना पड़ता है। इसलिए निर्वाचित सरकारें युवकों को रोजगार देने में नाकाम हो जाती हैं।