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Birth Rights

Birth Rights of Voters

वोटरों के जन्मजात अधिकार 

सरकारों द्वारा लोगों की सीधी मदद सही या गलत? 

सुप्रीम कोर्ट में आजकल बहस चल रही है। अदालत ने सरकार से और विशेषज्ञों से यह पूछा है कि जनता को रेवड़ियां बांटना ठीक है, या नहीं? इस विषय में  सुप्रीम कोर्ट का आने वाला फैसला देश के 80 करोड़ लोगों की जिंदगी आवाद भी कर सकता है और बर्बाद भी कर सकता है। इसलिए हम सब की जिंदगी पर इस फैसले का असर पड़ेगा। 

 सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल पूछा है, नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से इस प्रश्न का उत्तर आप जान सकते हैं। मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के लोग जान सकते हैं। भारत की सरकार,  भारत का वित्त आयोग और चुनाव आयोग जान सकते है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी जान सकता है। 👇🏻

इसी विषय पर देखिए दूसरा वीडियो 👇🏻

 

प्रश्नोत्तर और ऑनलाइन चैट के लिए नीचे दिए गए लिंक का उपयोग करें। Use link given below for FAQ and online chat👇🏻

http://wa.me/+919696123456

 

 देखिए तार्किक आधार- 

 

रेवडियाँ बांटने का आरोप और रेवडियाँ खाने का आरोप- दोनों को इस घटनाक्रम से समझ सकते हैं। मान लीजिए कि महाभारत की लड़ाई में पांडव हार जाते और कौरव जीत जाते। तो क्या होता? तब दुर्योधन की सरकार पांडवों के बच्चों को रेवड़ियां बांटने लगती। और फिर देश के 'एबी' मेंटालिटी के लोग और कथित राष्ट्रवादी लोग श्रीलंका के बहाने रेवड़ियों के इस बंटवारे पर आपत्ति करते। 

 

यद्यपि देश के गरीबों और मध्यवर्ग रूपी पांडवों के बच्चों का अधिकार तो पूरे हस्तिनापुर पर बनता है। यानी देश की औसत आमदनी के उपभोग करने का बनता है। लेकिन वे लोग केवल रेवड़िया खाकर संतोष कर रहे हैं। कौरवों के वंशजों को यह बात भी हजम नहीं हो रही है।  

 

धनवानवादी लोग तब आपत्ति नहीं करते, जब सरकार धनवानों को 'ज्वेलरी' बांटती है। कर्ज चुकाने के नाम पर हराम में 10,00,000 करोड़ रूपया धनवानों को दे देती है। बैंक में पैसा जमा करने वालों के लिए हराम में ब्याज देने का कानून बनाती है। धनवानों को हराम में शेयर बाजार से पैसा कमाने का अधिकार देती है।  फ्री में बाप का पैसा बेटे को देने के लिए उत्तराधिकार कानून बनाती है। बिना कुछ किए संपत्तियों और मशीनों के किराए को प्राप्त करने का कानून बनाती है। संपत्तियों की कीमत कुछ ही सालों में दुगनी- चौगुनी हो जाती है और इस आमदनी को बिना कोई परीक्षा दिए हासिल कर लेने का कानून बनाती हैं। क्या यह हराम में ज्वेलरी बांटने जैसा नहीं है?

 

मशीनों के कारण बेरोजगारी का दर्द आम जनता उठाती है और मशीनों के परिश्रम से पैदा हुआ धन मशीन वालों के हाथों में हराम की ज्वेलरी की तरह बांट दिया जाता है। तब इन कथित राष्ट्रवादियों को कोई आपत्ति नहीं होती। मशीन की सारी कमाई केवल मशीन मालिक के हिस्से क्यों और मशीन का कचरा यानी बेरोजगारी का दर्द आम जनता के हिस्से क्यों?  इस अत्याचार पर सुप्रीम कोर्ट में कोई मुकदमा क्यों नहीं किया जाता। रेवड़ी बांटने पर आपत्ति है लेकिन ज्वेलरी बांटने पर आपत्ति नहीं है। क्या यह दोगलापन नहीं है? 

प्राकृतिक संपदा में सबका हिस्सा क्यों नहीं? 

देश में समुद्र के अंदर, जमीन के अंदर, जंगलों में, पहाड़ों में, खदानों में खरबों रुपए की प्राकृतिक संपदा पैदा होती है। जिससे सरकार हर महीने अरबों रुपए छापती है। इस प्राकृतिक संपदा में एक पैसे का हिस्सा देश की जनता को नहीं मिलता। यह सब धनवान लोग हड़प जाते हैं। इसके लिए तमाम कानून बनाए गए हैं। प्राकृतिक संपदा से बने हुए खरबों रुपये में से जनता के हाथ केवल रेवड़ियां लग रही हैं। नकली राष्ट्रवादियों को यह भी हजम नहीं हो रहा है।

 

 जनता को रेवड़ी नहीं, हर महीने मिलने चाहियें ₹8000 

 

इस विषय में देखिए टीवी इंटरव्यू देखिए 👇🏻

 

फ्री में केवल रेवाड़ी बांटना चाहिए? या लोगों को उनका  लोकतांत्रिक हक भी दिया जाना चाहिए? 

 

रेवड़ियों  के नाम पर केवल सलाद देना चाहिए, या लोगों को भोजन भी देना चाहिए? इस बारे में जितने भी सवाल लोगों के मन में उठते हैं। उन सभी सवालों का जवाब केवल एक वीडियो में देखिए 👇🏻

 

 Watch the above contents in English 👇🏻

 

वोटरशिप अधिकार के बारे में सन 2005 से 2011 तक संसद में सैकड़ों सांसदों ने जनता के अधिकारों की वकालत की। इस पर शोध के लिए स्टैंडिंग कमेटी कायम हुई। 2 दिसंबर 2011 को स्टैंडिंग कमेटी ने इस प्रस्ताव को मंजूर कर लिया।  इस प्रस्ताव में रेवड़ी देने की नहीं, अपितु देश के वोटर को प्रति वोटर औसत  आमदनी की आधी रकम हर महीना देने की बात कही गयी थी. संसद की भाषा में इसको वोटरशिप का अधिकार कहा गया है। 

 

व्यवस्थित और कानूनी तरीके से तथा तर्कसंगत तरीके से रेवड़ी बांटने के विषय को कितनी संख्या में सांसदों ने संसद में पेश किया? वह सांसद किस किस पार्टी के थे? उन सांसदों का नाम क्या था? यह सांसद किस किस प्रदेश के थे? यह विषय उनके वह लोग किन किन तारीखों में संसद में पेश किया? यह भी देखिए कि लगभग ढाई सौ पेज के इस प्रस्ताव का पूरा कथन क्या था? 👇🏻👇🏻

https://votership.org/votership_in_indian_parliament.html 

 

 स्टैंडिंग कमेटी में जांच-पड़ताल के बाद देखिए संसद की रिपोर्ट ( report of goyal committee on votership) में क्या लिखा है?

👇🏻

https://votership.com/

 

 

लोकसभा चैनल पर इस विषय में बहस हुई। देखिए पूरी बहस 👇🏻

 

जो लोग रेवाड़ियों के बंटने से ही हाय तौबा मचा रहे हैं। वह राष्ट्रवादी नहीं है। वह AB  मानसिकता की बीमारी से ग्रस्त है। 

 

 एबी मानसिकता या एबी मेंटालिटी का मतलब क्या है? यह बात विस्तार से जानने के लिए देखिए यह दो वीडियो 👇🏻

संक्षेप में जानिए-

 

विस्तार से जानिए-

 

देश में करोड़ों लोग अपना सर्वस्व त्याग कर देश की जनता के जन्मजात आर्थिक अधिकारों के लिए पिछले कई दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। अभी उनका अधिकार तो नहीं मिला, लेकिन रेवड़िया जरूर मिल गई हैं। नीचे का वीडियो देखिए और जानिए कि रेवड़ियों तक पहुंचने में कितने लोगों की जिंदगियां कुर्बान हुई हैं। 

 

नीचे दिए गए वीडियो आपको जनसैलाब का वह नजारा दिखाएंगे जिसमें लोग अपने जन्मजात आर्थिक अधिकारों की कानूनी मान्यता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। 👇🏻

 

निष्कर्ष यह है कि रेवड़ियों के बंटवारे को तर्कसंगत बनाकर देश के प्रत्येक वोटर को, जो सरकारी नौकरी में नहीं है और जो आयकर देने की सीमा के नीचे है, उसे देश की औसत आमदनी का आधा हिस्सा (लगभग ₹8000 प्रति माह सन 2020 की कीमतों पर) बिना शर्त सरकार उसके खाते में पहुंचाए। तभी रेवड़ियों पर रोक लगाना न्याय संगत होगा। रेवड़ियां पर रोक के नाम पर देश के एबी मानसिकता के क्रूर आर्थिक तानाशाहों का मंसूबा कामयाब नहीं होना चाहिए। 

 

यदि आप देश के गरीबों, ग्रामीणों, मध्यमवर्ग, साइकिल और मोटरसाइकिल की सवारी रखने वाले 85 करोड़ लोगों के परिवारों को न्याय दिलाना चाहते हैं तो यह संदेश जी भर कर फॉरवर्ड करिए और लोगों को फॉरवर्ड करने के लिए कहिए। क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया और बड़े बड़े अखबार और टीवी चैनल ऊपर बताए गए संघर्षों के समाचारों को पिछले 25 वर्षों से रोके हुए हैं। मीडिया में इस संघर्ष की गाथा नहीं आने के कारण सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी गलतफहमी के शिकार हैं।

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