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चुनाव लोकतंत्र का सबूत नहीं , जनता की जरूरतों का सम्मान भी जरूरी : भरत गांधी

एनएसजे रिपोर्टर गुवाहाटी । गुवाहाटी प्लेनेटोरियम में संपन्न हुई परिचर्चा में सभी विद्वानों ने यह माना की राजनीतिक व्यवस्था में दोष है और यह लोगों की इच्छा से संचालित नहीं है । न ही यह लोगों के लिए काम कर रही है आमतौर पर सभी विद्वानों कि इस बात पर सहमति थी कि लोकतंत्र खरीद बिक्री का शिकार हो गया है । इसलिए लोकतंत्र के ताने – बाने में आज की जरूरतों के अनुरूप सुधार आवश्यक हो गया है । यह परिचर्चा आर्थिक आजादी आंदोलन ने गुवाहाटी प्लेनेटोरियम के सभागार में आयोजित किया था । परिचर्चा के मुख्य वक्ता भरत गांधी ने कहा कि वैश्वीकरण के इस युग में लोकतंत्र को देशों की सीमाओं से आजाद कराना आवश्यक है उन्होंने कहा कि यह काम प्रभुसत्ता की परिभाषा बदले बगैर संभव नहीं है । उन्होंने प्रश्न किया कि जब प्रभु की परिभाषा अंतिम रूप से तय नहीं हो पाई तो कैसे कहा जाए कि प्रभुसत्ता की परिभाषा अंतिम रूप से तय हो गई है भरत गांधी ने इस बात को राजनीतिक अंधविश्वास बताया कि प्रभुसत्ता देशों के नागरिकों में निहित है । भरत गांधी ने कहा कि वास्तव में प्रभुसत्ता विश्व समाज में नहीं थी और निहित है उन्होंने कहा कि धरती के 760 करोड़ लोग अपनी वोट से जिसको सत्ताधीश बनाएं , उसी को राज करने का वास्तविक हक है । राजा और राज्य के लक्षणों पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि मां बच्चे के हित के लिए उसका पालन पोषण भी करती है और दंडित भी करती है आदर्श राजा मां की तरह होना चाहिए । उन्होंने कहा कि वह व्यक्ति धरती का असली राजा है जिसके दिल में धरती के सभी इंसानों के लिए ममता है राज व्यवस्था पर दर्जनों पुस्तकों के लेखक भरत गांधी ने कहा कि कोई व्यक्ति जिस देश में जन्म ले , उसी देश की नागरिकता मिलना राजनीति शास्त्र का आत्मघाती अंधविश्वास है । उन्होंने कहा कि आज जब इंटरनेट ने दुनिया के लोगों को आपस में जोड़ कर रख दिया है तो नागरिकता तय करने का अधिकार राज्य से वापस लेकर व्यक्ति को दिया जाना चाहिए । उन्होंने कहा कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व और जरूरत के अनुरूप नागरिकता की भौगोलिक सीमा तय करने का अधिकार मिलना चाहिए । गांधी ने कहा कि राज्य का राज्य क्षेत्र पूरी धरती से कम भौगोलिक सीमा का नहीं हो सकता । उन्होंने कहा कि लोकतंत्र नागरिकता , प्रभुसत्ता और राज्य की परंपरागत परिभाषाएं छोड़ कर सही परिभाषा अपना लिया जाए तो गरीबी , बेरोजगारी , अशिक्षा , भ्रष्टाचार आतंकवाद , विषमता , सांस्कृतिक पतनस्पर्धा की समस्याएं केवल भारत से ही नहीं , पूरी दुनिया के हर एक देश से खत्म हो जाएंगी । गांधी ने कहा कि सस्ता निर्यात पाने के लिए देश के ज्यादातर लोगों को जानबूझकर गरीब रखना और निर्यात उससे मिला लाभ केवल देश के मुट्ठी भर लोगों को देते रहना न तो राष्ट्रवाद है और न ही लोकतंत्र का लक्षण है उन्होंने कहा कि केवल चुनाव से यह साबित नहीं होता कि लोकतंत्र चल रहा है , अपितु जनता की जरूरतों का सम्मान भी जरूरी है कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए गुवाहाटी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अब्दुल मन्नान कहा कि हर सही सोचने वाले को कम्युनिस्ट कह देने का फैशन चल पड़ा है । उन्होंने कहा कि भरत गांधी की बातों से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सुधार की भरत गांधी की परिकल्पना को धरती पर उतारना जरूरी तो है लेकिन साथ में यह सोचना भी जरूरी है कि यह काम किया कैसे जाएगा ?

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